Thursday, 14 September 2017

नरसिंग देवता

उत्तराखंड में कुछ बहुत ही प्रसिद्ध देवता हैं जिनमे से एक देवता हैं नारसिंह, नृसिंह, नरसिंग इत्यादि।

नृसिंह उत्तराखंड में विष्णु के अवतार के रूप में नहीं पूजे जाते वरन इनका सम्बन्ध नाथ सम्प्रदाय से माना जाता है और गुरु गोरखनाथ के शिष्य माने जाते हैं। ऐसा मान जाता है कि ये आज भी जीवित ऊर्जा के रूप में विध्यमान हैं और अपनी ध्याण की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। न्याय का देवता भी कहा जाता है नृसिंह को।

आखिर क्या सत्य है पर्वतीय वीर देवताओं का, उस ओर एक प्रयास है जानने का। विष्णु अवतार नृसिंह से क्या कोई सम्बन्ध है या कत्यूर शासक नर्सिंग देव से कोई सम्बन्ध है? कितने हैं ये वीर संख्या में? 9 या 52? या और भी ज्यादा?

आम तौर पर नरसिंग भगवान को विष्णु अवतार माना जाता है किन्तु कुमाऊं व गढ़वाल में नर्सिंग भगवान गुरु गोरखनाथ के चेले के रूप में ही पूजे जाते हैं . नर्सिंगावली मन्त्रों के रूप में भी प्रयोग होता है और घड़ेलों में जागर के रूप में भी प्रयोग होता है. एक नरसिंग घडला में लालमणि उनियाल, खंडूरीयों का जिक्र भी सुना था
नरसिंग नौ हैं :

1)इंगला वीर,
2)पिंगला बीर ,
3)जतीबीर,
4)थतीबीर,
5)घोर-अघोरबीर,
6)चंड बीर ,
7)प्रचंड बीर ,
8)दुधिया,
9)डौंडिया नरसिंग
आमतौर पर दुधिया नरसिंग व डौंडिया नरसिंग के जागर लगते हैं . दुधिया नरसिंग शांत नरसिंघ माने जाते है जिनकी पूजा रोट काटने से पूरी हो जाती है जब कि डौंडिया नरसिंग घोर बीर माने जाते हैं व इनकी पूजा में भेड़ बकरी का बलिदान की प्रथा है।
 .......... जागर ...............
जै नौ नरसिंग बीर छयासी भैरव
हरकी पैड़ी तू जाग
केदारी तू गुन्फो मा जाग
डौंडी तू गढ़ मा जाग
खैरा तू गढ़ मा जाग
निसासु भावरू जाग
सागरु का तू बीच जाग
खरवा का तू तेरी झोली जाग
नौलडिया तेरी चाबुक जाग
टेमुरु कु तेरो सोंटा जाग
बाग्म्बरी का तेरा आसण जाग
माता का तेरी पाथी जाग
संखना की तेरी ध्वनि जाग
गुरु गोरखनाथ का चेला पिता भस्मासुर माता महाकाली का जाया
एक त फूल पड़ी केदारी गुम्फा मा
तख त पैदा ह्वेगी बीर केदारी नरसिंग
एक त फूल पड़ी खैरा गढ़ मा
तख त पैदा ह्वेगी बीर डौंडि
एक त फूल पोड़ी वीर तों सागरु मा
तख त पैदा ह्वेगी सागरया नरसिंग
एक त फूल पड़ी बीर तों भाबरू मा
तख त पैदा ह्वेगी बीर भाबर्या नारसिंग
एक त फूल पड़ी बीर गायों का गोठ , भैस्यों क खरक
तख त पैदा ह्वेगी दुधिया नरसिंग
एक त फूल पड़ी वीर शिब्जी क जटा मा
तख त पैदा ह्वेगी जटाधारी नरसिंग
हे बीर आदेसु आदेसु बीर तेरी नौल्ड्या चाबुक
बीर आदेसु आदेसु बीर तेरो तेमरू का सोंटा
बीर आदेसु आदेसु बीर तेरा खरवा की झोली
वीर आदेसु आदेसु बीर तेरु नेपाली चिमटा
वीर आदेसु आदेसु बीर तेरु बांगम्बरी आसण
वीर आदेसु आदेसु बीर तेरी भांगला की कटोरी
वीर आदेसु आदेसु बीर तेरी संखन की छूक
वीर रुंड मुंड जोग्यों की बीर रुंड मुंड सभा
वीर रुंड मुंड जोग्यों बीर अखाड़ो लगेली
वीर रुंड मुंड जोग्युंक धुनी रमैला
कन चलैन बीर हरिद्वार नहेण
कना जान्दन वीर तैं कुम्भ नहेण
नौ सोंऊ जोग्यों चल्या सोल सोंऊ बैरागी
वीर एक एक जोगी की नौ नौ जोगणि
नौ सोंऊ जोगयाऊं बोडा पैलि कुम्भ हमन नयेण
कनि पड़ी जोग्यों मा बनसेढु की मार
बनसेढु की मार ह्वेगी हर की पैड़ी माग
बीर आदेसु आदेसु बीर आदेसु बीर आदेसु

-श्री मुकेश कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 14.09.2017
 

हिंदी दिवस की शुभकामनाएं

माँ अक्षरा अमृतमयी, हिंदी तुझे शत-शत नमन,

स्वर और व्यंजन में निहित,तू ही प्रथम परिबोध है,
तेरे बिना संभव कहाँ,अनुभूतियों पर शोध है,
तू काल चिंतन की कला,तू शब्द है,तू ही सृजन
माँ अक्षरा अमृतमयी.....

रस,छंद,रूपक से बनी,तू शिल्प की अलकापुरी,
आरोह में,अवरोह में,तू ही भरी रस-गागरी,
अभिव्यक्ति से गुंजित हुई,सारी धरा,सारा गगन,
माँ अक्षरा अमृतमयी....

तू लक्षणा,अभिव्यंजना,अभिधा मधुर मृदुभाषिणी,
तू सूफियों की लाडली,तू उर्वशी,कामायनी,
साकेत,भारत-भारती, गोदान तू,तू ही गबन,
माँ अक्षरा अमृतमयी....

निर्गुण-सगुण के रूप में,तूने हरी मन की व्यथा,
तूने रचे साखी सबद,तूने रची मानस कथा,
सत्संग से तू ही बनी,पद, सोरठा,दोहा,भजन...
माँ अक्षरा अमृतमयी,हिंदी तुझे शत-शत नमन....

हिंदी दिवस की असीम शुभकामनाएं.

-श्री उमाशंकर कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल (पंजी)' में प्रेषित, दिनांक 14.09.2017

ब्राह्मण क्यों देवता ?

नोट--_कुछ आदरणीय मित्रगण कभी -कभी मजाक में या  कभी जिज्ञासा में, कभी गंभीरता से एक प्रश्न करते है कि: ब्राम्हण को इतना सम्मान क्यों दिया जाय या दिया जाता है? तो आइये देखते है हमारे धर्मशास्त्र क्या कहते है इस विषय में-
शास्त्रीय मत:

पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।
सागरे  सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।
चैत्रमाहात्मये तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखमाश्रिताः ।
सर्वांगेष्वाश्रिता देवाः पूजितास्ते तदर्चया ।।
अव्यक्त रूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि ।
नावमान्या नो विरोधा कदाचिच्छुभमिच्छता ।।


अर्थात पृथ्वी में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी समुद्र में मिलते हैं और समुद्र में जितने भी तीर्थ हैं वह सभी ब्राह्मण के दक्षिण पैर में  है। चार वेद उसके मुख में हैं  अंग में सभी देवता आश्रय करके रहते हैं इस कारण ब्राह्मण को पूजा करने से सब देवों का पूजा होती है। पृथ्वी में ब्राह्मण जो है विष्णु रूप है इसलिए  जिसको कल्याण की इच्छा हो वह ब्राह्मणों का अपमान तथा द्वेष  नहीं करना चाहिए।

देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: ।
ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता ।


अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र ब्राह्मण के अधीन हैं इस कारण ब्राह्मण देवता हैं ।   

ऊँ जन्मना ब्राम्हणो, ज्ञेय:संस्कारैर्द्विज उच्चते ।
विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभि:श्रोत्रिय लक्षणम् ।।


ब्राम्हण के बालक को जन्म से ही ब्राम्हण समझना चाहिए।
संस्कारों से "द्विज" संज्ञा होती है तथा विद्याध्ययन से "विप्र" नाम धारण करता है।
जो वेद,मन्त्र तथा पुराणों से शुद्ध होकर तीर्थस्नानादि के कारण और भी पवित्र हो गया है,वह ब्राम्हण परम पूजनीय माना गया है।

ऊँ पुराणकथको नित्यं, धर्माख्यानस्य सन्तति:।
अस्यैव दर्शनान्नित्यं ,अश्वमेधादिजं फलम् ।।


जिसके हृदय में गुरु,देवता,माता-पिता और अतिथि के प्रति भक्ति है। जो दूसरों को भी भक्तिमार्ग पर अग्रसर करता है,जो सदा पुराणों की कथा करता और धर्म का प्रचार करता है ऐसे ब्राम्हण के दर्शन से ही अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

पितामह भीष्म जी ने पुलस्त्य जी से पूछा--
गुरुवर!मनुष्य को देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकार के मंगल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह बताने की कृपा करें ।*

पुलस्त्यजी ने कहा--
राजन!इस पृथ्वी पर ब्राम्हण सदा ही विद्या आदि गुणों से युक्त और श्रीसम्पन्न होता है।
तीनों लोकों और प्रत्येक युग में विप्रदेव नित्य पवित्र माने गये हैं।
ब्राम्हण देवताओं का भी देवता है।
संसार में उसके समान कोई दूसरा नहीं है।
वह साक्षात धर्म की मूर्ति है और सबको मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला है।
ब्राम्हण सब लोगों का गुरु,पूज्य और तीर्थस्वरुप मनुष्य है।

पूर्वकाल में नारदजी ने ब्रम्हाजी से पूछा था--
ब्रम्हन्!किसकी पूजा करने पर भगवान लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं?"
ब्रम्हाजी बोले--जिस पर ब्राम्हण प्रसन्न होते हैं,उसपर भगवान विष्णुजी भी प्रसन्न हो जाते हैं।
अत: ब्राम्हण की सेवा करने वाला मनुष्य निश्चित ही परब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त होता है।
ब्राम्हण के शरीर में सदा ही श्रीविष्णु का निवास है।
जो दान,मान और सेवा आदि के द्वारा प्रतिदिन ब्राम्हणों की पूजा करते हैं,उसके द्वारा मानों शास्त्रीय पद्धति से उत्तम दक्षिणा युक्त सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान हो जाता है।
जिसके घरपर आया हुआ ब्राम्हण निराश नही लौटता,उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।
पवित्र देशकाल में सुपात्र ब्राम्हण को जो धन दान किया जाता है वह अक्षय होता है।
वह जन्म जन्मान्तरों में फल देता है,उनकी पूजा करने वाला कभी दरिद्र, दुखी और रोगी नहीं होता है।जिस घर के आँगन में ब्राम्हणों की चरणधूलि पडने से वह पवित्र होते हैं वह तीर्थों के समान हैं।

ऊँ  विप्रपादोदककर्दमानि,
न वेदशास्त्रप्रतिघोषितानि!
स्वाहास्नधास्वस्तिविवर्जितानि,
श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।


जहाँ ब्राम्हणों का चरणोदक नहीं गिरता,जहाँ वेद शास्त्र की गर्जना नहीं होती,जहाँ स्वाहा,स्वधा,स्वस्ति और मंगल शब्दों का उच्चारण नहीं होता है। वह चाहे स्वर्ग के समान भवन भी हो तब भी वह श्मशान के समान है।
भीष्मजी!पूर्वकाल में विष्णु भगवान के मुख से ब्राम्हण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।

पितृयज्ञ(श्राद्ध-तर्पण), विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म और समस्त मांगलिक कार्यों में सदा उत्तम माने गये हैं।
ब्राम्हण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य का उपभोग करते हैं। ब्राम्हण के बिना दान,होम तर्पण आदि सब निष्फल होते हैं।

जहाँ ब्राम्हणों को भोजन नहीं दिया जाता,वहाँ असुर,प्रेत,दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं। ब्राम्हण को देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिए। उनके आशीर्वाद से मनुष्य की आयु बढती है,वह चिरंजीवी होता है।ब्राम्हणों को देखकर भी प्रणाम न करने से,उनसे द्वेष रखने से तथा उनके प्रति अश्रद्धा रखने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है,धन ऐश्वर्य का नाश होता है तथा परलोक में भी उसकी दुर्गति होती है।

चौ- पूजिय विप्र सकल गुनहीना।
      शूद्र न गुनगन ग्यान प्रवीणा।।

कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा।
एहिसम विजयउपाय न दूजा।।

       ------ रामचरित मानस......
ऊँ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,
       गोब्राम्हणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय,
        गोविन्दाय नमोनमः।।


जगत के पालनहार गौ,ब्राम्हणों के रक्षक भगवान श्रीकृष्ण जी कोटिशःवन्दना करते हैं।
जिनके चरणारविन्दों को परमेश्वर अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं,उन ब्राम्हणों के पावन चरणों में हमारा कोटि-कोटि प्रणाम है।।
ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है,
ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।

ब्राह्मण ज्ञान के दीप जलाने का नाम है,
ब्राह्मण विद्या का प्रकाश फैलाने का काम है।

ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है,
ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।

ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है,
ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जीकर ही पला है।

ब्राह्मण ज्ञान, भक्ति, त्याग, परमार्थ का प्रकाश है,
ब्राह्मण शक्ति, कौशल, पुरुषार्थ का आकाश है।

ब्राह्मण न धर्म, न जाति में बंधा इंसान है,
ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान है।

ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है,
ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।

ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है,
ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।

ब्राह्मण गरीबी में सुदामा-सा सरल है,
ब्राह्मण त्याग में दधीचि-सा विरल है।

ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है,
ब्राह्मण के हस्त में शत्रुओं के लिए बेद कीर्तिवान है।

ब्राह्मण सूखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है,
ब्राह्मण निषिद्ध गलियों में सहमे सत्य को बचाता है।

ब्राह्मण संकुचित विचारधारों से परे एक नाम है,
ब्राह्मण सबके अंत:स्थल में बसा अविरल राम है..

सभी बड़े गुरुजनोको मेरा प्रणाम। और शब्दोमे कोई त्रुटि हो तो छमा चाहता हुँ।जय हिन्द।

-श्री योगेश्वराकेश कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल (पंजी)' में प्रेषित, दिनांक 14.09.2017

Tuesday, 12 September 2017

सिद्धेश्वर बाबा, नीलकण्ठ, ऋषिकेश उत्तराखण्ड

नीलकण्ठ में भगवान महादेव के स्वयं-भू लिंग के रूप में प्रकट होने के समय से पौराणिक काल तक यहां अनेकों प्रसिद्ध मुनिगण आकर जप-तप करते रहे।

पौराणिक युग के पश्चात भगवान आद्यशंकराचार्य के उदय होने तक यहां अनेक सिद्धगण रहकर तपस्या करते रहे। उनमें से एक सिद्धबाबा बहुत प्रसिद्ध हैं। श्री नीलकण्ठ महादेव से जी लगभग आधा किलोमीटर दूर रानी की कोठी के पास एक शिला पर सिद्धबाबा का स्थान है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शंकराचार्य के आगमन से पूर्व यही सिद्धबाबा श्री नीलकण्ठ की पूजा करते थे। कहा जाता है कि भगवान आद्यशंकराचार्य के पूर्वकाल से आज तक ये जीवित हैं और कभी-कभी रात्रि में आकर भगवान नीलकण्ठ की पूजा अर्चना कर जाते हैं। उनके स्थान पर उनकी पूजा स्वयं ही हो जाती है। वर्ष में एक बार उनका ध्वज बदला जाता है ।

मन्दिर में कलावा ही प्रसाद रूप में चढाया जाता है। बाबा छोटूगिरी महाराज के अलावा पवनपुत्र हनुमानजी की मूर्ति मन्दिर में विराजमान हैं। यहीं बाबा जी का धूना भी है। मन्दिर से पूरे नीलकंठ क्षेत्र का नजारा देखने को मिलता है।

-श्री मुकेश कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 12.09.2017

Quotable

Chinese proverb-

If you give a man a fish, you feed him for a day: if you teach him how to fish, you give him food for life.

Shared by Mr M P Kukreti, in 'Kukreti Bhratr Mandal (Reg)' on 11.09.2017

Sunday, 10 September 2017

सरयूपारीण ब्राह्मण

सरयूपारीण ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण या सरयूपारी ब्राह्मण सरयू नदी के पूर्वी तरफ बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। यह कान्यकुब्ज ब्राह्मणो कि शाखा है। श्रीराम ने लंका विजय के बाद कान्यकुब्ज ब्राह्मणों से यज्ञ करवाकर उन्हे सरयु पार स्थापित किया था। सरयु नदी को सरवार भी कहते थे। ईसी से ये ब्राह्मण सरयुपारी ब्राह्मण कहलाते हैं। सरयुपारी ब्राह्मण पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी होते हैं। मुख्य सरवार क्षेत्र पश्चिम मे उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या शहर से लेकर पुर्व मे बिहार के छपरा तक तथा उत्तर मे सौनौली से लेकर दक्षिण मे मध्यप्रदेश के रींवा शहर तक है। काशी, प्रयाग, रीवा, बस्ती, गोरखपुर, अयोध्या, छपरा इत्यादि नगर सरवार भूखण्ड में हैं।

एक अन्य मत के अनुसार श्री राम ने कान्यकुब्जो को सरयु पार नहीं बसाया था बल्कि रावण जो की ब्राह्मण थे उनकी हत्या करने पर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए जब श्री राम ने भोजन ओर दान के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया तो जो ब्राह्मण स्नान करने के बहाने से सरयू नदी पार करके उस पार चले गए ओर भोजन तथा दान समंग्री ग्रहण नहीं की वे ब्राह्मण सरयुपारीन ब्राह्मण कहे गए।
सरयूपारीण ब्राहमणों के मुख्य गाँव :

गर्ग (शुक्ल- वंश)
गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज  कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे| गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है|
(१) मामखोर (२) खखाइज खोर  (३) भेंडी  (४) बकरूआं  (५) अकोलियाँ  (६) भरवलियाँ  (७) कनइल (८) मोढीफेकरा (९) मल्हीयन (१०) महसों (११) महुलियार (१२) बुद्धहट (१३) इसमे चार  गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव| ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं|

उपगर्ग (शुक्ल-वंश)
उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे कुछ इस प्रकार से हैं|
बरवां (२) चांदां (३) पिछौरां (४) कड़जहीं (५) सेदापार (६) दिक्षापार
यही मूलत: गाँव है जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल     बंश का उत्थान कर रहें हैं यें सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं|

गौतम (मिश्र-वंश)
गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं जो इन छ: गांवों के वाशी थे|
(१) चंचाई (२) मधुबनी (३) चंपा (४) चंपारण (५) विडरा (६) भटीयारी
इन्ही छ: गांवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है, यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं|

उप गौतम (मिश्र-वंश)
उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं|
(१)  कालीडीहा (२) बहुडीह (३) वालेडीहा (४) भभयां (५) पतनाड़े  (६) कपीसा
इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति  मानी जाति है|

वत्स गोत्र  ( मिश्र- वंश)
वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे|
(१) गाना (२) पयासी (३) हरियैया (४) नगहरा (५) अघइला (६) सेखुई (७) पीडहरा (८) राढ़ी (९) मकहडा
बताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है|
कौशिक गोत्र  (मिश्र-वंश)
तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है|
(१) धर्मपुरा (२) सोगावरी (३) देशी

बशिष्ट गोत्र (मिश्र-वंश)
इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है|
(१) बट्टूपुर  मार्जनी (२) बढ़निया (३) खउसी

शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश)
शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बाह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं|
(१) सांडी (२) सोहगौरा (३) संरयाँ  (४) श्रीजन (५) धतूरा (६) भगराइच (७) बलूआ (८) हरदी (९) झूडीयाँ (१०) उनवलियाँ (११) लोनापार (१२) कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है 
इन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है, यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं| इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है, श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे  राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है, इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है|

उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश)
इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं|
(१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा

भार्गव गोत्र (तिवारी  या त्रिपाठी वंश)
भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें  चार गांवों का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है|
(१) सिंघनजोड़ी (२) सोताचक  (३) चेतियाँ  (४) मदनपुर

भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश)
भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बाये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है|
(१) बड़गईयाँ (२) सरार (३) परहूँआ (४) गरयापार

कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन  इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे परन्तु वासी (बस्ती) के राजा  बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया जिसमे एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गादी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें|  सरार के दुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है|

सावरण गोत्र ( पाण्डेय वंश)
सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलन रहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है जिनके तीन गाँव निम्न हैं|
(१) इन्द्रपुर (२) दिलीपपुर (३) रकहट (चमरूपट्टी)

सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश)
सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गांवों से सम्बन्धित बाते जाते हैं|
(१) मलांव (२) नचइयाँ (३) चकसनियाँ

कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश)
इन तीन गांवों से बताये जाते हैं|
(१) त्रिफला (२) मढ़रियाँ  (३) ढडमढीयाँ

ओझा वंश
इन तीन गांवों से बताये जाते हैं|
(१) करइली (२) खैरी (३) निपनियां

चौबे -चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र)
इनके लिए तीन गांवों का उल्लेख मिलता है|
(१) वंदनडीह (२) बलूआ (३) बेलउजां
एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है|
🌇ब्राह्मणों की वंशावली🌇
भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे। एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें वरदान दिया। वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था -

उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ला, मिश्रा, अग्निहोत्री, दुबे, तिवारी, पाण्डेय, और चतुर्वेदी ।

इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की।
वे क्रमशः
उपाध्यायी, दीक्षिता, पाठकी, शुक्लिका, मिश्राणी, अग्निहोत्रिधी, द्विवेदिनी, तिवेदिनी पाण्ड्यायनी, और चतुर्वेदिनी कहलायीं। फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम -

कष्यप, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्रि, वसिष्ठ, वत्स, गौतम, पराशर, गर्ग, अत्रि, भृगडत्र, अंगिरा, श्रंगी, कात्याय, और याज्ञवल्क्य।

इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं। मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं-
(1) तैलंगा, (2) महार्राष्ट्रा, (3) गुर्जर, (4) द्रविड, (5) कर्णटिका, यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाय जाते हैं| तथा विंध्यांचल के उत्तर मं पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण
(1) सारस्वत, (2) कान्यकुब्ज, (3) गौड़, (4) मैथिल, (5) उत्कलये, उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं।
वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है। ऐसी संख्या मुख्य 115 की है। शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है। यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं। जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं, फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के लगभग है| तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है। उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है 81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या, मुख्य है -

(1) गौड़ ब्राम्हण, (2)गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा) (3) श्री गौड़ ब्राम्हण, (4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण, (5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण, (6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण, (7) शोरथ गौड ब्राम्हण, (8) दालभ्य गौड़ ब्राम्हण, (9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण, (10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण, (11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर), (12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण, (13) वाल्मीकि ब्राम्हण, (14) रायकवाल ब्राम्हण, (15) गोमित्र ब्राम्हण, (16) दायमा ब्राम्हण, (17) सारस्वत ब्राम्हण, (18) मैथल ब्राम्हण, (19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण, (20) उत्कल ब्राम्हण, (21) सरवरिया  ब्राम्हण, (22) पराशर ब्राम्हण, (23) सनोडिया या सनाड्य, (24)मित्र गौड़ ब्राम्हण, (25) कपिल ब्राम्हण,
(26) तलाजिये ब्राम्हण, (27) खेटुवे ब्राम्हण, (28) नारदी ब्राम्हण, (29) चन्द्रसर ब्राम्हण, (30)वलादरे ब्राम्हण,
(31) गयावाल ब्राम्हण, (32) ओडये ब्राम्हण, (33) आभीर ब्राम्हण, (34) पल्लीवास ब्राम्हण, (35) लेटवास ब्राम्हण, (36) सोमपुरा ब्राम्हण, (37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण, (38) नदोर्या ब्राम्हण, (39) भारती ब्राम्हण,
(40) पुश्करर्णी ब्राम्हण, (41) गरुड़ गलिया ब्राम्हण, (42) भार्गव ब्राम्हण, (43) नार्मदीय ब्राम्हण, (44) नन्दवाण ब्राम्हण, (45) मैत्रयणी ब्राम्हण, (46) अभिल्ल ब्राम्हण, (47) मध्यान्दिनीय ब्राम्हण, (48) टोलक ब्राम्हण,
(49) श्रीमाली ब्राम्हण, (50) पोरवाल बनिये ब्राम्हण, (51) श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण  (52) तांगड़ ब्राम्हण, (53) सिंध ब्राम्हण, (54) त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण, (55) इग्यर्शण ब्राम्हण, (56) धनोजा म्होड ब्राम्हण, (57) गौभुज ब्राम्हण, (58) अट्टालजर ब्राम्हण, (59) मधुकर ब्राम्हण, (60) मंडलपुरवासी ब्राम्हण, (61) खड़ायते ब्राम्हण,
(62) बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण, (63) भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण, (64) लाढवनिये ब्राम्हण, (65) झारोला ब्राम्हण,
(66) अंतरदेवी ब्राम्हण, (67) गालव ब्राम्हण, (68) गिरनारे ब्राम्हण

सभी ब्राह्मण बंधुओ को मेरा नमस्कार बहुत दुर्लभ जानकारी है जरूर पढ़े। और समाज में सेयर करे हम क्या है
इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति और इतिहास के साथ इनका विस्तार अलग अलग राज्यो में हुआ और ये उस राज्य के ब्राह्मण कहलाये।

-श्री दीपक  कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 10.09.2017

यमकेशवर महादेव मंदिर


श्री अभिषेक कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 10.09.2017

यमकेश्वर मंदिर की कथा

जय यमकेश्वर

उत्तराखंड में गढ़वाल मंडलान्तर्गत पौड़ी जनपद है इस जनपद में हरिद्वार तथा कोटद्वार, गढ़वाल के दो प्रवेश द्वारों के मध्य पर्वतीय अंचल में यमकेश्वर नामक स्थान है। यहां यमकेश्वर महादेव के नाम से भगवान शिव का अत्यंत प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर ऋषिकेश लक्ष्मण झूला कोटद्वार मार्ग के मध्य अमोला नामक स्थान से तीन किमी नीचे पर्वतों की उपत्यिका में स्थित है। कोटद्वार से मंदिर की दूरी लगभग अस्सी किमी है, जबकि लक्ष्मण झूला से पचास किमी है। विभिन्न पुराणों में वर्णित मार्कण्डेय की मृत्यु पर विजय की कथा से संबंधित यह स्थल अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं जनमानस की श्रद्धा का केंद्र है। बद्री-केदार के मुख्य मार्ग से दूर होने के कारण यमकेश्वर मंदिर प्रकाश में नहीं आ पाया।

इस मंदिर से संबंधित कुछ लोक प्रचलित कथाएं हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र कुत्स ऋषि तथा ऋषि कर्दम पुत्री के मृगश्रृंग नामक पुत्र हुए। मृगश्रंृग की सुवृता नामक पत्नी से मृकण्ड नामक एक तेजस्वी पुत्र हुआ। मृकण्ड वृद्धावस्था को प्राप्त हो गए पर उनके कोई संतान नहीं हुई।संतान विहीन मृकण्ड और उनकी धर्मपत्नी मरूद्धती ने काशी में जाकर तप किया। पत्नी के साथ तपस्या और नियमों का पालन करते हुए उन्होंने भगवान शिव को संतुष्ट किया। प्रसन्न होने पर शिव भगवान ने पत्नी सहित मृकण्ड से वर मांगने के लिए कहा।

मुनि ने कहा- परमेश्वर संतान विहीन मुझे एक पुत्र का वर दीजिए। भगवान शंकर ने कहा कि तुम्हें उत्तम गुणों से हीन चिरंजीव पुत्र चाहिए अथवा केवल बारह साल की अल्पायु वाला एक ज्ञान एवं गुणवान पुत्र चाहिए। महर्षि मृकण्ड ने ज्ञान एवं गुणवान पुत्र का वरण ही श्रेयकर समझा। भगवान शिव तथास्तु कहकर अंर्तध्यान हो गए। मृकण्ड पत्नी बहुत दिनों पश्चात गर्भवती हुई। समय आने पर मरूद्धती के गर्भ से सूर्य सदृश तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ। बुद्धिमान मार्कण्डेय के ग्यारहवें वर्ष के प्रारंभ होने पर मुनि मृकुण्ड का हृदय शोक से कातर हो उठा, संपूर्ण इंद्रियों में व्याकुलता छा गई वे दीनतापूर्वक विलाप करने लगे।पिता को अत्यंत दुखी और करुण विलाप करते देख मार्कण्डेय ने उनसे शोक मोह का कारण पूछा। मार्कण्डेय के मधुर वचन सुनकर मृकण्डु ने शोक का कारण बताया और कहा कि पुत्र भगवान शिव ने तुम्हें केवल 12 वर्ष की आयु ही दी है उसकी समाप्ति का समय आ गया है। अब मुझे शोक हो रहा है। पितृवचन सुन मार्कण्डेय ने कहा कि आप मेरे लिए कदापि शोक न कीजिए। मैं ऐसा यत्न करूंगा कि जिससे अमर हो जाऊंगा। मैं भगवान शिव की आराधना करके अमरतत्व प्राप्त करूंगा। पुत्र की बात सुनकर मृकुण्ड हर्षित एवं संतुष्ट हो गए। तब मार्कण्डेय ने यमकेश्वर मणिकूट पर्वत के निकट जहां शतरुद्रा नदी का उद्गम स्थल है,वहां पीपल के वृक्ष के नीचे बालू का लिंग बनाकर महामृत्युंजय का जप करने लगे। मृत्युंजय भगवान की कृपा से उनके उत्तर की ओर सात छोटे-छोटे जलपूर्ण तालाब बन गए जो आज भी प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होते हैं। मृत्यु तिथि आने पर इसी स्थान पर यमराज आए और बलपूर्वक मार्कण्डेय का प्राण हरण करने लगे। पहले मार्कण्डेय और यम में वार्तालाप हुआ और उसके बाद प्रकट हुए शिव ने यम पर चरण प्रहार किया। यम से झगड़ा होने के कारण ही स्थान का नाम यमरार पड़ा जो कालांतर में यमराड़ी नाम से प्रसिद्ध हो गया।

तब यमराज ने वर्तमान यमकेश्वर नामक स्थान में आकर भगवान शिव के रूद्र रूप की स्तुति प्रारंभ कर दी। भगवान शिव प्रसन्न हो गए। और यमराज से कहा कि जहां मेरा मृत्युंजय जप होता हो वहां तुम्हें नहीं जाना चाहिए। अंत में यमराज की स्तुति से प्रसन्न होकर शिव ने कहा कि जिस स्थान पर तुम हो उस स्थान पर मेरी स्वयं भू लिंग रूपी मूर्ति उत्पन्न हुई है। उसकी तुम पूजा अर्चना करो। यह शिवलिंग तुम्हारे नाम से ही प्रसिद्ध होगा। इस शिवलिंग का जो पूजन करेगा वह बड़ी-बड़ी अपमृत्यु एवं अकाल मृत्यु को टाल देगा।  जिन-जिन कामनाओं को लेकर मनुष्य यहां मेरी पूजा करेगा उसकी वह कामना अवश्य पूर्ण होगी। यमराज ने एक वर्ष तक इस शिवलिंग के सामने घोर तपस्या की। भगवान शिव प्रसन्न हुए तथा उसी दिन से यमकेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। मंदिर के सामने बहने वाली छोटी नदी का नाम शतरुद्रा था।

सत्य मामा है इसका उद्गम यमराड़ी है जहां मार्कण्डेय ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी जहां सात कुंड वर्तमान में भी विद्यमान हैं।यमकेश्वर के निकट ही कांडा नामक गांव है इस गांव की वृद्धा ने सर्वप्रथम यमकेश्वर शिव लिंग का साक्षात्कार किया था। उस समय यमकेश्वर के आस पास झाडियों और वनों की अधिकता थी एक दिन उक्त बुढिय़ा वाराही कंद लेने इस स्थल पर आई। झाडिय़ों में गीढ़ी खोदते समय एकाएक कुदाली की नोंक एक पत्थर पर लगी। पत्थर पर खरोंच लगते ही उससे दूध की धार फूट पड़ी। यह देखकर बुढिय़ा घबरा गई। तब शिव भगवान ने प्रकट होकर कहा कि तुम यहां क्या लेने आई हो। मुझे गीढ़ी (कंद) चाहिए। उन्होंने कहा कि जाओ घर में ही तुम्हें इच्छित वस्तु मिल जाएगी। बुढिय़ा ने घर जाकर देखा कि उसका आंगन। गंढी से भरा पड़ा था। तब बुढिया ने क्षेत्र के लोगों को उस स्थान के बारे में बताया फिर स्थल का निर्माण शुरू हुआ।

यमकेश्वर महादेव के बाएं पाश्र्व में महाकाली मंदिर भी है यह मंदिर अधिक प्राचीन नहीं है। इसकी स्थापना के संबंध में भी वयोवृद्ध लोग एक बहुत रोचक व आश्चर्यजनक वृतांत सुनाते हैं। यह विश्वसनीय घटना अधिक प्राचीन नहीं है यमकेश्वर मंदिर में किसी समय एक सिद्ध तांत्रिक बाबा जोगेन्द्र गिरि आए। उनकी सिद्धि व भक्ति भावना से स्थानीय लोग प्रभावित थे, परंतु कुछ लोग उनकी चमत्कारिक शक्ति का प्रदर्शन देखना चाहते थे। अत: उन लोगों ने बाबा से निवेदन किया कि बाबा यदि आपमें कुछ सिद्धि या शक्ति है तो यहां मां काली को बुलाकर स्थापना कर दीजिए। बाबा ने कहा कि काली का आह्वान तो में कर लूंगा परंतु कुछ व्यक्ति जो निर्भीक और दृढ़ हृदय के हों वे मेरे निकट बैठ जाएं। इस साधन में बैठने के पश्चात में अनुष्ठान के पूर्ण होने तक आसन पर ही बैठा रहूंगा अन्यथा क्रिया खंडित हो जाएगी और भयंकर अनिष्ट भी सकता है। मां काली को अर्पण करने हेतु जो जो सामग्री में आपसे मांगूंगा आप मुझे देते रहना।

सहर्ष ही कुछ लोग इस कार्य के लिए तैयार हो गए। पूजन हवन एवं अर्पण की संपूर्ण सामग्री मंगाकर बाबा ने अपने चारों ओर रख ली और आसन जमा कर बैठ गए और बोले कि तुम लोग भयभीत मत होना और मेरे संकेतानुसार सामग्री मुझे देते जाना। और अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया। बाबा ये मंत्रों से मां महाकाली का पूजन स्तवन एवं जप प्रारंभ कर दिया। शनै: शनै: काली के आह्वान मंत्रों का उच्चारण किया। क्षणभर पश्चात घाटी में भयंकर घाटी में भयंकर तूफान तथा विचित्र अट्टाहास युक्त आवाजें सुनाई देने लगी। वातावरण भयावह हो रहा था। और लोगों का साहस क्षीण होता जा रहा था सुदूर स्थित क्षेत्र से एक भयंकर किलकारी की ध्वनि ने उन लोगों के साहस को बिल्कुल तोड़ दिया एक-एक करके सब लोग भाग गए। व बाबा अकेले अनुष्ठान करते रहे। क्षण भर पश्चात मां महाकाली बाबा के समक्ष उपस्थित हो गई। बाबा ने विभिन्न भोग सामग्री मां काली को अर्पित की।

जहां तक उनका हाथ पहुंचा उन्होंने सारी सामग्री प्रदान कर दी। आसन से उठना निषद्ध था अत: उन्होंने काली का भोग पूरा करने के लिए अपने शरीर का मांस काट-काट कर अपना ही बलिदान कर दिया। भक्त की अगाध श्रद्धा, अदम्य साहस एवं शरीरार्पण देख मां काली प्रसन्न हो गई और बाबा से वर मांगने को कहा। नश्वर शरीर का मोह त्याग कर उन्होंने मां काली से कहा कि आपका दर्शन हो गया यही मेरे लिए बहुत है, अगर आप मुझ पर प्रसन्न हें तो मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कर इस स्थान पर प्रतिष्ठित हो जाइए। तथाअस्तु कह कर मां काली उस स्थान पर प्रतिष्ठित हो गई। मां काली के पाश्र्व स्थल में बाबा की समाधि के ऊपर एक छोटा सा स्थान मंदिर आज भी उनके त्याग मय बलिदान का स्मारक है।

श्री के आर कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 09.09.2017

कार्यकारिणी सभा, ऋषिकेश (20.08.2017)



चुनाव सभा, तुनवाला, देहरादून (18.06.2017)








कोटद्वार सभा, कर्ण्वाश्रम (27.03.2016)