Saturday, 21 October 2017

गाँव पहुंचने पर नरभक्षी बाग के साथ भयावह क्षण

जब कभी अपने गांव मरोड़ा, उदयपुर के  बचपन की याद आती है, तो बचपन की कुछ अनगिनित यादें मन को प्रफुल्लित करती हैं और एकाएक कभी झकझोर भी देती हैं। मानस पटल पर एक स्वाभाविक भाव उत्पन्न होता है कि "वो भी बचपन के क्या दिन थे जो हम अपने गांव में व्यतीत करते थे" और आज भी जब मैं गांव को याद करता हूँ तो प्रयास करता हूँ कि गांव हो आऊं।अल्प-समय या यूँ कहूँ  कि अल्प- बचपन, जन्म से लेकर लगभग ७- ८ वर्ष  के व्यतीत  क्षण, आज भी अनंत हैं और असीमित यादों से भरे पड़े हैं।
परन्तु मन उन स्मृतियों को आज इस उम्र में केवल हृदयांकित करता है। उम्र के इस पड़ाव पर गांव न जा पाने की स्थिति  में मन कुछ असंतुष्ट भी रहने लगा है। कारण यह भी कि पलायन  व् अब पलायनवादी आवश्यकता एवम शहरी संस्कृति की ओर झुकाव से  गांव खाली हो चुका  है। सभी कुछ बदल गया है और और समय के साथ बदल भी रहा है l  न बचपन के साथी वहां मिलते हैं और न ही वे बुजुर्ग जन जिनसे बचपन में जुड़ाव था। गांव के परस्पर खेत खलिहान की बातें व् अन्य सामाजिक क्रिया-कलाप  जैसे कि मिलजुल कर  सभी का एक मील दूर से पानी लेकर आना आदि आदि अब ये गतिविधियाँ देखने को भी नहीं मिलती।
परन्तु मुझे जो सबसे अप्रत्याशित व् अनापेक्षित घटना आज  याद आती है, वह  मेरे जीवन की उस उम्र के मोड़ की है जब मैं सर्विस पर था, मेरी आयु लगभग ३०-३५ वर्ष की उम्र रही होगी। अपने निवास  देहरादून से मरोड़ा पल्ला उदयपुर यमकेश्वर पहुंचने के  बाद घटित हुई l  यह  घटना आज से  लगभग ३० वर्ष पूर्व की है। यात्रा की कठिनता व् नरभक्षी बाघ से मुलाक़ात की यह घटना आज भी याद आने पर रोंगटे खड़े कर देती है। उस वक्त  मात्र कुछ ही परिवार  शहर की ओर पलायन कर चुके थे। सर्विस करने वाले कुछ ही  जीवीकोपार्जन हेतु दूर प्रदेश में थेपरन्तु अधिकतर का परिवार गांव में ही रहता था और कुछ प्रवासी भी हो चुके थे हमारी तरह, परन्तु नगण्य मात्र थे। 

यह अप्रत्याशित घटना दो मानवों के बीच न होकर
  मानव व् पशु द्व् न्द  की एक अत्यंत कष्टकारी अनुभूति थी। यह ऐसी विशिष्ट अकल्पनीय घटना थी कि  नरभक्षी से मुठभेड़  न भूतो न भविष्यति ही कही  जायेगी l  कारण एक ११  वर्षीय बालक व् स्वयं मैं इस अकल्पनीय संघर्ष को प्रत्यक्ष रूप में अर्ध रात्रि को लगभग २-३ बजे के आस पास अपने घर के आंगन में  झेल गए। ईश्वर शायद हमारे साथ था। तत-पश्चात  मन विचलित भी हुआ व् भयभीत भी रहा। और यह  सोचने पर  मजबूर हुआ कि  ऐसा हुआ तो क्यों हुआ प्रश्न आज भी अनुत्तरित है, कारण आज भी मानव-पशु प्रतिद्वंदता की घटनाएं उत्तराखण्ड़ के गांवों में घटित हो रही हैं। आज के इस पलायनि समय में यह द्वन्द रुक पायेगा पता नहीं है, एक प्रश्न चिन्ह ही है।
अजमेर से ग्रीष्मावकाश पर सपरिवार अपने घर देहरादून पहुँचा। देहरादून में भी गांव की तरह हमारे संयुक्त परिवार में परम्पराएं मूल उत्तराखंडी थीं l  मेरे ताऊजी का पौत्र जो ११-१२   वर्ष रहा  होगा, यहीं हमारे साथ में पढ़ता था। उत्सुक्तावश  एक दिन आग्रह कर बैठा कि चाचा जी गांव चलना है, बाल इच्छा व् स्वयं गाँव जाने की तीव्र भावना से  इंकार न कर सका, त्वरित निर्णय किया।
अगले दिन उत्सुकतावश   देहरादून से बस द्वारा हरिद्वार पहुंचे। उन दिनों टेलीफोन सुविधाएँ आज की तरह  विस्तारित भी नहीं थीं। ऋषिकेश से  कोई सड़क मार्ग नहीं था। चंडीघाट हरिद्वार से एक ही बस गंगा बस सर्विस की चलती थी वह भी दोपहर को चलकर रात्रि विश्राम ताल नदी के किनारे कंडरह मण्डी  में करती थी। वहां से मेरे गांव मरोड़ा  की दूरी ४-५ किलोमीटर होगी लेकिन वह भी एकदम चढ़ाई वाली पगडंडी के रूप में।
जीवन में  दुर्भाग्य भी दस्तक देता है जब बिना सोचे समझे, केवल भावनावश होकर त्वरित  निर्णय लिए जाते  हैं। इसका आभास तब हुआ जब चंडीघाट बस अड्डे पर बस चलने के बाद चीला के पास   कंडक्टर से मैंने हास्यभाव से आखिरी बस अड्डे का नाम लिए बगैर दो टिकट मांगे। उसने सूचित किया कि आज बस आधे रास्ते बिंध्यवासिनी तक ही जायेगी। माथा ठनका, छोटा बच्चा साथ में वापस देहरादून  जाना भी असम्भव था l  बस को ठसाठस भरना भी ड्राइवर व् कंडक्टर की मजबूरी थी जैसा कि हर पहाड़ी मार्ग में होता है। 
यात्रीगण भी रात चंडीघाट या हरिद्वार में न रूक कर अपने गांव पहुंचकर परिजनों से मिलने  को प्राथमिकता देते हैं। बस मालिक की कमाई व यात्रियों की समय बचाई का पूर्ण समीकरण उचित भी था। पूरी बस भरने के लालच से बस रवानगी में लगभग एक घंटा देर भी हो गयी। एक उत्तम अनुभव यह था कि बस में बैठे बैठे ही  सभी जन एक दूसरे के गांव व् रिस्तेदारी से परिचित भी होने लगे। सिवाय मेरे क्योंकि २० -२५ सालों से प्रति वर्ष यदाकदा ही गांव  जाना होता था।  यात्री अधिकतर दिल्ली व् अन्य मैदानी क्षेत्रों  से आये प्रवासी लगे। कुछ लोग नजदीक हरिद्वार ज्वालापुर से भी थे जिनकी संख्या बहुत कम थी। शायद अन्य हरिद्वार के रहने वाले लोग पहले मालूम कर चुके थे कि आज बस आधे रास्ते बिदासनी (विंध्यवासिनी देवी मन्दिर) तक ही जायेगी।
मै  भी उस वक्त कुछ अन्य  प्रवासी यात्री ही की तरह किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा  रहा। देहरादून वापसी का प्रश्न नहीं था कारण देहरादून के लिए वापसी करने पर चंडीघाट से हरिद्वार होकर भी तीन चार घंटे लग जाते। फिर सोचा की कदम गांव की ओर बढ़ाये हैं तो वापसी क्यों। यदि कोई अन्य व्यवधान न हो तो  अन्तिम बस अड्डे कंडरह मण्डी  तक भी लगभग इतना ही वक्त लगता। अत: प्रेम के वशीभूत गांववासियों से मिलने की इच्छा ने आखिरकार अपना रंग दिखाया और हम बस  द्वारा ही गांव पहुंचने की लालसावश बैठे रहे।
पहाड़ों में बस के सफर का अनुभव कठिनता लिए हुए होता है लेकिन यह अनुभव पहाड़ी सड़क का न होकर लगभग २०-२५ किलोमीटर जँगल, वर्तमान राजाजी पार्क, से हो कर अंतिम बस स्टैंड कंडरह मण्डी तक एकदम धूल भरी जंगलात की कच्ची, उबड़-खाबड़ सड़क हुआ करती थी। बीच  बीच  में गधेरे व् नदी मार्ग  से  ठूँस ठूँस कर भरी हुई  बस के झखझोले खाने पर एक दुसरे के ऊपर गिर पड़ने से यात्री परस्पर गढवाली  भाषा में  हास्य का मजा भी  ले रहे थे। अलग अलग समीपस्थ गांवों के यात्रियों की परस्पर इतने दिनों के मिलन  के साथ  अन्य नाते रिश्तेदारों व् परिचितों  का जिक्र भी मन को आनंदित कर  रहा था। मैं बोलचाल की सरल व् अपनत्व  वाली भाषा को समझ रहा था क्योंकि भलीभांति गढ़वाली बोल भी सकता था।
यात्रियों के बोल, इस असुविधापूर्वक बस यात्रा में, हंसी मजाक के एक मात्र साधन थे जो मन को प्रफ्फुलित कर  देते थे। इस कटु सफर में सभी यात्रियों का गंतव्य स्थान तक पहुंचने की शारीरिक पीड़ा के अनुभव को कम करने के  बातचीत एवं हास्य के बोल  कभी कभी गति पकड़ लेते थे। बीच-बीच  में वृद्ध महिलाओं द्वारा अपनी भाषा के  लधु मज़ाकिय शब्द यात्रा में यदाकदा एक अनजाना सा  हास्य  भी उपन्न कर  देते थे, साथ ही किसी छोटे बच्चे द्वारा वृद्ध महिला के शब्दों को दोहराकर बोलने पर तथा  उस पर युवा यात्रि का और कुछ जवाब  देना भी  यात्रा को सुगम तो नहीं परन्तु और भी आनन्दित कर रहा था। सभी यात्री कठिनाई-युक्त सफर का  मनोरंजन ले रहे थे। यात्रा में गम्भीर बातचीत तो होती थी  लेकिन अधिकतर हास्य ही समय व्यतीत करने का एक मात्र जरिया था।  कभी कभी तो हास्य किसी किसी यात्री के लिए अति मजाक के कारण कटु भी बन जाता था परन्तु  यात्रा में हास्य को नई ऊंचाई तो मिल ही जाती थी। यह यात्रा  मुझे हास्य से अधिक, पहाड़ों में आर्थिक, भौगोलिक  कठिनाइयों की पीड़ा व् सरल भाव के ताने बाने की प्रतीतात्मक जीवन शैली  की तरह महसूस हुयी। लगभग साढ़े ५ बजे पर उस दिन के कंडक्टर व् ड्राइवर द्वारा स्वघोषित अंतिम बस अड्डे बिंध्यवासिनी पहुँचे।
सूरज की रौशनी कम होती जा रही थी विंध्यवासिनी से गांव लगभग २० किलोमीटर दूर होगा। १५ किलमीटर ताल नदी के रास्ते पैदल ही चलना पड़ा। अंतिम बस अड्डे कंडरह मण्डी  तक  पहुंचे। शाम हो गयी,रात्रि आगमन भी होने लगा। यह स्थान भी हमारी ग्राम सभा का ही  हिस्सा है। लोग पूज्य पिताजी के नाम से परिचित थे व् साथ गए बालक के माता पिता को भलीभांति जानते थे। यहां पर भी मै  एक प्रवासी होने के गुण अवगुणों का मंथन  मन ही मन में करने लगा। गांव वासी  जो भी मिला आग्रह करने लगा  कि रात यहीं रहें लेकिन घर के इतने नजदीक पहुंचने के बाद घर गांव की याद और भी बलवती हो गई। हमारे न रूक सकने की  पीड़ा को समझते हुए उन्होंने हमे छिल्ल (उजाले का एक साधन) व् माचिस देना चाहा परन्तु टॉर्च हमारे पास था जो हम रास्ते में रात हो जाने के डर से देहरादून से ही साथ रख चुके थे।
लेकिन १५ किलोमीटर की नदी मार्ग की पैदल यात्रा असह्य थकान का अनुभव करा चुकी थी और आगे का ४-५ किलोमीटर मार्ग कड़ी चढ़ाई का था। शरीर थकान से टूटने लगा था  लेकिन यह भी  ज्ञात था कि यहां पर बीच में गांव के ही एक चाचा जी का निवास व् सन्नी भी है। अधिक परेशानी हुयी तो उनके पास भी रूक सकते हैं।
मेरा अजमेर ( राजस्थान) छात्रों के साथ  माउंटेनियरिंग व् ट्रेकिंग के द्वारा गढ़वाल हिमालय,कुमांऊ व्  अन्यत्र स्थानों में अर्जित चढ़ाई चढ़ने का आत्म-विश्वास मुझे प्रेरणा दे गया और  मैं छोटे बालक की मनस्थिति  को न समझ सका, जिसका मुझे दुःख हुआ। बालक भी मां व् दादी से मिलने की आतुरता से गांव तक पहुंचने की इच्छा को न रोक पाया। चाचा जी ने चाय पिलाई और चढाई को देखते हुए हमे उस स्थान तक  छोड़ दिया जहाँ  से हमारा प्यारा घर दिन में दिखाई देता था l  मै थकान भूल गया बालक की आतुरता और भी बढ़  गयी, कदम तेज होते चले गए। घर पहुंचे इंतजार तो हो ही रहा था। रात्रि के साढ़े आठ बज चुके थे हाथ मुंह धोने के बाद साढ़े नौ बजे तक रात्रि भोजन किया। भोजन करते करते नींद के झरोखे  हमारी शारीरिक थकान की परकाष्ठा का बयान कर ही रहे थे। ताई जी व् भाभी जी  की डांट भी  सहनी पड़ी जो स्वाभाविक थी, जो बच्चे के साथ रात को घर पहुँचने पाने से अधिक, आस पास के जंगलों में बाघ के होने की संभावना से थी।
स्वादिष्ट रात्रि भोजनोपरान्त आँखे कह रही थी सो जाइये बहुत थके हुए हो। गर्मी थी, घर के अंदर तो अधिक ही महसूस हो रही थी।  हमारा मकान गांव के श्रेणीवद्ध मकानों की श्रंखला में अंतिम व्  सबसे ऊंचाई पर था। हवा मंद मंद चल रही थी। पिताजी ने  गांव वाले आवास को बंद करके यह मकान खुले व् कुछ ऊंचाई पर शायद इसी लिए बनवाया था कि  यहां पर शुद्ध व् मंद  मंद हवा चलती है। चारों ओर से खुला खुला भी है, बीच गांव से दूर व्  साथ ही एकांत में गांव से लगता हुआ भी । इस सन  १९५२-५३ में निर्मित  नए मकान में दो लॉन थे। एक घर के ठीक सामने और दूसरा दाहिनी ओर कुछ ऊंचाई पर था। दाहिने ओर ऊंचाई वाले लॉन में दो अलग अलग चारपाइयाँ, एक छोटी एक बड़ी। एक मेरे लिए और एक बच्चे के लिए लगा दी गयीं। बांयी ओर समतल स्थान पर मैं सोया और दाहिनी ओर कुछ ढलान वाले स्थान पर लगी छोटी चारपाई में बालक लेट गया। शरीर थकान से टूट चुका था अत: स्वाभाविक गहरी निद्रा में हम दोनों लीन  हो गए। यह निद्रा भी इतनी गहरी थी कि चारपाई के एक पाए पर जंजीर से बंधे  हुए एक हल्के  गुलाबी रंग के अच्छी नस्ल के पालतू  कुत्ते के भौंकने की आवाज भी हम नींद आने के कुछ समय बाद सुन नहीं पा रहे थे। शायद शारीरिक थकावट से मन भी गहरी नींद के अतिरिक्त किसी अन्य कल्पना से दूर था।
रात्रि लगभग २  से ३ बजे का समय रहा होगा सोते हुए बच्चे की चारपाई में कुछ हलचल हुयी। चारपाई के  ढलान की ओर जाने पर बच्चा एकदम उठ बैठा और चिल्ला पड़ा। चिल्लाने की आवाज पर मैंने नींद में ही  नीचे की ओर जाती हुई चारपाई को पकड़ लिया। मैं  उठा तो भयभीत बच्चा लपक कर मेरी चारपाई को पकड़ बैठा। उस गहरे अँधेरे में ढलान के नीचे की ओर जंगली झाड़ियों में  किसी जानवर के भागने का एहसास हुआ। उसकी गति इतनी तेज थी कि हम उसे देख भी नहीं पाए।
अन्दर सोयी  हुयी बच्चे की माँ  व् दादी किसी अनहोनी होने की शंका से हमारी आवाज सुनकर,उठकर हमारे पास दौड़ कर पहुंचे।  हालत एकदम नहीं समझ पाये किसी भूत प्रेत की संभावना लगी और तसल्ली  देने लगे। अब हम  चार हो लोग गए थे l  दोनों ने देखा की चारपाई पर लोहे की जंजीर से बंधे हुए कुत्ते की जंजीर और कुत्ता भी गायब है। हम और भी भय ग्रस्त हुए और साथ ही गुमशुम भी।  तब उन्होंने बताया की आसपास के जंगलों से बाघ लोगों के जानवरों पर पिछले दिनों आक्रमण कर चुका था। मैं आश्चर्यचकित था कि आक्रमणकारी जानवर आया भी, कुत्ते को जंजीर सहित ले भी गया, मैं और बच्चा दोनों कष्टकारी पैदल यात्रा से निद्रा की गोद में एहसास भी नहीं कर  पाये  कि जंजीर से बंधे कुत्ते को कोई  ले गया है। नीचे  गांव के लोग भी  जाग चुके थे वहीं से आवाज देकर हाल चाल पूछने लगे। लेकिन अप्रत्याशित घटना का पटाक्षेप हो चुका  था। अत : गांव वाले भी हमारे घर तक  उस अँधेरे में पहुंचने की जहमत न उठा पाए। अब मेरा आत्म विश्वास कुछ  डिग गया। इस अप्रत्याशित आक्रमण व् फिर दोहराये जाने की आशंका  के कारण हम  अपनी चारपाईयां अंदर तिबारी में ले गए। दरवाजा बंद किया। नींद पूरी न होने तथा शारीरिक थकान व् भयभीत मन से से कुछ गपशप  करने के बाद पुन: सो गए। सुबह देर ८-९ बजे तक सोये रहेl  गांव के कुछ लोग कुशलक्षेम, वास्तविकता की जानकारी व् चर्चा के लिए घर आये, चाय पर चर्चा में पूरी घटना की जानकारी का आदान प्रदान भी हुआ। यह ज्ञात  हुआ कि  दूर के गांवों  में, कुछ दिनों से  बाघ द्वारा बकरियों का शिकार हो रहा था।
दुनिया के प्रसिद्ध शिकारी  जिम कार्बेट की लिखित पुस्तकों की जानकारी और पिताजी के वन  विभाग में सर्विस में रहने के कारण कुछ जंगल आधारित अनुभवो, अजमेर में छात्रों के साथ अध्यापन के अतिरिक्त अक्सर जंगल कैंप, डेजर्ट कैंप व् अरावली हिल्स में  मून लाइट पिकनिक व् कैंडल लाइट डिनर के अनुभवों का मैं आनंद ले चुका था जो इस तरह का तो नहीं परन्तु रात खुले में बिताये जाने का था। परन्तु गांव में घटित इस अविस्मरणीय मौत के नजदीक पहुंच कर जी पाने की आहट को मैं आज तक नही भूल पाया हूँ। साथ ही आज भी यह नही समझपाने में असमर्थ हूँ कि वह आक्रमणकारी बाघ नरभक्षी था भी, या नहीं।
बाघ के नरभक्षी होने के कारण बड़े स्पष्ट होते हैं। ज़िंदा रहने के लिए जवान बाघ या जंगली शेर जवानी में किसी कारण घायल होने से या ढलती उम्र के कारण नरभक्षी बनता है। पांव में किसी शिकारी के गोली लगने या फिर कांटा चुभ जाने के कारण अथवा आँखों में चोट के कारण या आँखों से कम दिखाई देने के  बाबजूद भी एकदम से नरभक्षी नहीं बनता। दौड़कर जंगली जानवरों का शिकार न कर पाने की स्थिति में वह एक स्थान पर छुपकर शिकार करता है फिर धीरे धीरे और कम तेज भागने वाले जानवरों का शिकार जंगलों में करता है। बढ़ती उम्र में  शेर या बाघ पानी के श्रोत के पास या उस रास्ते में आते जाते जानवरों को झाड़ियों में छिपकर, दबिश देकर मारता है। जब कम तेज भागने वाले जानवर भी बच निकलते हैं तो उसे  निकट गांव में जीवन संघर्ष हेतु पहुंचना पड़ता है।
 
गांवों में चरती हुयी  वह गाय बकरियों को शिकार बनाता है, घटती शारीरिक क्षमता के कारण बूढी गाय बकरियां उसका निशाना बनती हैं। यदि मवेशियों की गति, भूखे शेर की भाग पाने की गति से अधिक हुयी नहीं कि फिर  वह गांव के ही छोटे छोटे बच्चे या बूढ़े लोगों  पर आक्रमण करना शुरू करता है। बच्चे या वृद्धजन अपेक्षाकृत तेज नहीं दौड़ सकते और नरभक्षी का शिकार बन जाते हैं। इस तरह पहिले नर भक्षण  पर लोग इसे नरभक्षी की श्रेणी में रख देते हैं। लेकिन ऐसा भी तो नहीं होता कि वह प्रथम मनुष्य को मारने के पश्चात केवल और केवल नर  को ही मारता है। उसे तो जो कुछ भी मिला उसे ही मारना है, खाना है। क्योंकि  जीवन के अंतिम सांस तक जीना है।
सुन्दरवन डेल्टा में "बंगाल टाइगर" के नरभक्षी बन जाने का कारण उपरोक्त कारणों  के अलावा थोड़ा अलग  भी होता है। वहां पर क्षारीय पानी पीते रहने से बाघ या शेर के कैनाइन (canines) दांत जो कठोर मांस को चीर कर खाने में मदद करते हैं,गिर जाते हैं। तब  वह कोमल मांस वाले बच्चे व् मनुष्यों का शिकार पर ही नजर रखता है। और अपना शिकार एक निर्धारित सोची समझी प्रक्रियानुसार उसी प्रकार करता है जैसा कि अन्य जंगलों में अन्य नरभक्षी  करते हैं।
परम् पिता परमेश्वर का धन्यवाद कि बच्चे को अभय दान मिला और मैं भी  सुरक्षित रह पाया। परन्तु घोर दुःख हुआ कि हमने एक अपना मित्र, प्यारा सा पाला हुआ कुत्ता खो दिया।
आज भी मैं कभी उस क्षण  को याद करता हूँ तो एक वेदना और भय का संचार मन में स्वत्: ही हो जाता है। साथ ही मैं अभी तक यह नहीं समझ पाया की बाघ जो हम तक पहुंचने की हिम्मत कर  चुका था, नरभक्षी था या सामान्य। नरभक्षी  होता तो पहिले बच्चे पर आक्रमण करता। बंधे हुए  कुत्ते को नहीं ले जाता। संभवत: कुत्ते के बच्चे का छोटा होना उसकी भूख मिटाने को पर्याप्त न रहा हो तो वह दूसरे प्रयास में साथ में सोये हुए बच्चे को घसीटकर ले जाने का एक अन्य प्रयास कर बैठा। अन्ततोगत्वा  हम सुरक्षित रहे। पर यह भयावह रात्रि क्षण सदा के लिए एक यादगार क्षण बन गये। आज वह बालक अपने पैरों पर खड़ा है और अपने परिवार का भरण-पोषण भली-भांति देहरादून में रहकर कर रहा है। माँ -बाप की सेवा में समर्पित भी है।
 
 
सुन्दर श्याम कुकरेती
पुत्र स्वर्गीय श्री विश्वेश्वर दत्त कुकरेती
ग्राम- मरोड़ा पल्ला उदयपुर
यमकेश्वर पौड़ी गढ़वाल।
दिनाँक १४ अक्टूबर २०१७।
 

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