Saturday, 21 October 2017

गाँव पहुंचने पर नरभक्षी बाग के साथ भयावह क्षण

जब कभी अपने गांव मरोड़ा, उदयपुर के  बचपन की याद आती है, तो बचपन की कुछ अनगिनित यादें मन को प्रफुल्लित करती हैं और एकाएक कभी झकझोर भी देती हैं। मानस पटल पर एक स्वाभाविक भाव उत्पन्न होता है कि "वो भी बचपन के क्या दिन थे जो हम अपने गांव में व्यतीत करते थे" और आज भी जब मैं गांव को याद करता हूँ तो प्रयास करता हूँ कि गांव हो आऊं।अल्प-समय या यूँ कहूँ  कि अल्प- बचपन, जन्म से लेकर लगभग ७- ८ वर्ष  के व्यतीत  क्षण, आज भी अनंत हैं और असीमित यादों से भरे पड़े हैं।
परन्तु मन उन स्मृतियों को आज इस उम्र में केवल हृदयांकित करता है। उम्र के इस पड़ाव पर गांव न जा पाने की स्थिति  में मन कुछ असंतुष्ट भी रहने लगा है। कारण यह भी कि पलायन  व् अब पलायनवादी आवश्यकता एवम शहरी संस्कृति की ओर झुकाव से  गांव खाली हो चुका  है। सभी कुछ बदल गया है और और समय के साथ बदल भी रहा है l  न बचपन के साथी वहां मिलते हैं और न ही वे बुजुर्ग जन जिनसे बचपन में जुड़ाव था। गांव के परस्पर खेत खलिहान की बातें व् अन्य सामाजिक क्रिया-कलाप  जैसे कि मिलजुल कर  सभी का एक मील दूर से पानी लेकर आना आदि आदि अब ये गतिविधियाँ देखने को भी नहीं मिलती।
परन्तु मुझे जो सबसे अप्रत्याशित व् अनापेक्षित घटना आज  याद आती है, वह  मेरे जीवन की उस उम्र के मोड़ की है जब मैं सर्विस पर था, मेरी आयु लगभग ३०-३५ वर्ष की उम्र रही होगी। अपने निवास  देहरादून से मरोड़ा पल्ला उदयपुर यमकेश्वर पहुंचने के  बाद घटित हुई l  यह  घटना आज से  लगभग ३० वर्ष पूर्व की है। यात्रा की कठिनता व् नरभक्षी बाघ से मुलाक़ात की यह घटना आज भी याद आने पर रोंगटे खड़े कर देती है। उस वक्त  मात्र कुछ ही परिवार  शहर की ओर पलायन कर चुके थे। सर्विस करने वाले कुछ ही  जीवीकोपार्जन हेतु दूर प्रदेश में थेपरन्तु अधिकतर का परिवार गांव में ही रहता था और कुछ प्रवासी भी हो चुके थे हमारी तरह, परन्तु नगण्य मात्र थे। 

यह अप्रत्याशित घटना दो मानवों के बीच न होकर
  मानव व् पशु द्व् न्द  की एक अत्यंत कष्टकारी अनुभूति थी। यह ऐसी विशिष्ट अकल्पनीय घटना थी कि  नरभक्षी से मुठभेड़  न भूतो न भविष्यति ही कही  जायेगी l  कारण एक ११  वर्षीय बालक व् स्वयं मैं इस अकल्पनीय संघर्ष को प्रत्यक्ष रूप में अर्ध रात्रि को लगभग २-३ बजे के आस पास अपने घर के आंगन में  झेल गए। ईश्वर शायद हमारे साथ था। तत-पश्चात  मन विचलित भी हुआ व् भयभीत भी रहा। और यह  सोचने पर  मजबूर हुआ कि  ऐसा हुआ तो क्यों हुआ प्रश्न आज भी अनुत्तरित है, कारण आज भी मानव-पशु प्रतिद्वंदता की घटनाएं उत्तराखण्ड़ के गांवों में घटित हो रही हैं। आज के इस पलायनि समय में यह द्वन्द रुक पायेगा पता नहीं है, एक प्रश्न चिन्ह ही है।
अजमेर से ग्रीष्मावकाश पर सपरिवार अपने घर देहरादून पहुँचा। देहरादून में भी गांव की तरह हमारे संयुक्त परिवार में परम्पराएं मूल उत्तराखंडी थीं l  मेरे ताऊजी का पौत्र जो ११-१२   वर्ष रहा  होगा, यहीं हमारे साथ में पढ़ता था। उत्सुक्तावश  एक दिन आग्रह कर बैठा कि चाचा जी गांव चलना है, बाल इच्छा व् स्वयं गाँव जाने की तीव्र भावना से  इंकार न कर सका, त्वरित निर्णय किया।
अगले दिन उत्सुकतावश   देहरादून से बस द्वारा हरिद्वार पहुंचे। उन दिनों टेलीफोन सुविधाएँ आज की तरह  विस्तारित भी नहीं थीं। ऋषिकेश से  कोई सड़क मार्ग नहीं था। चंडीघाट हरिद्वार से एक ही बस गंगा बस सर्विस की चलती थी वह भी दोपहर को चलकर रात्रि विश्राम ताल नदी के किनारे कंडरह मण्डी  में करती थी। वहां से मेरे गांव मरोड़ा  की दूरी ४-५ किलोमीटर होगी लेकिन वह भी एकदम चढ़ाई वाली पगडंडी के रूप में।
जीवन में  दुर्भाग्य भी दस्तक देता है जब बिना सोचे समझे, केवल भावनावश होकर त्वरित  निर्णय लिए जाते  हैं। इसका आभास तब हुआ जब चंडीघाट बस अड्डे पर बस चलने के बाद चीला के पास   कंडक्टर से मैंने हास्यभाव से आखिरी बस अड्डे का नाम लिए बगैर दो टिकट मांगे। उसने सूचित किया कि आज बस आधे रास्ते बिंध्यवासिनी तक ही जायेगी। माथा ठनका, छोटा बच्चा साथ में वापस देहरादून  जाना भी असम्भव था l  बस को ठसाठस भरना भी ड्राइवर व् कंडक्टर की मजबूरी थी जैसा कि हर पहाड़ी मार्ग में होता है। 
यात्रीगण भी रात चंडीघाट या हरिद्वार में न रूक कर अपने गांव पहुंचकर परिजनों से मिलने  को प्राथमिकता देते हैं। बस मालिक की कमाई व यात्रियों की समय बचाई का पूर्ण समीकरण उचित भी था। पूरी बस भरने के लालच से बस रवानगी में लगभग एक घंटा देर भी हो गयी। एक उत्तम अनुभव यह था कि बस में बैठे बैठे ही  सभी जन एक दूसरे के गांव व् रिस्तेदारी से परिचित भी होने लगे। सिवाय मेरे क्योंकि २० -२५ सालों से प्रति वर्ष यदाकदा ही गांव  जाना होता था।  यात्री अधिकतर दिल्ली व् अन्य मैदानी क्षेत्रों  से आये प्रवासी लगे। कुछ लोग नजदीक हरिद्वार ज्वालापुर से भी थे जिनकी संख्या बहुत कम थी। शायद अन्य हरिद्वार के रहने वाले लोग पहले मालूम कर चुके थे कि आज बस आधे रास्ते बिदासनी (विंध्यवासिनी देवी मन्दिर) तक ही जायेगी।
मै  भी उस वक्त कुछ अन्य  प्रवासी यात्री ही की तरह किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा  रहा। देहरादून वापसी का प्रश्न नहीं था कारण देहरादून के लिए वापसी करने पर चंडीघाट से हरिद्वार होकर भी तीन चार घंटे लग जाते। फिर सोचा की कदम गांव की ओर बढ़ाये हैं तो वापसी क्यों। यदि कोई अन्य व्यवधान न हो तो  अन्तिम बस अड्डे कंडरह मण्डी  तक भी लगभग इतना ही वक्त लगता। अत: प्रेम के वशीभूत गांववासियों से मिलने की इच्छा ने आखिरकार अपना रंग दिखाया और हम बस  द्वारा ही गांव पहुंचने की लालसावश बैठे रहे।
पहाड़ों में बस के सफर का अनुभव कठिनता लिए हुए होता है लेकिन यह अनुभव पहाड़ी सड़क का न होकर लगभग २०-२५ किलोमीटर जँगल, वर्तमान राजाजी पार्क, से हो कर अंतिम बस स्टैंड कंडरह मण्डी तक एकदम धूल भरी जंगलात की कच्ची, उबड़-खाबड़ सड़क हुआ करती थी। बीच  बीच  में गधेरे व् नदी मार्ग  से  ठूँस ठूँस कर भरी हुई  बस के झखझोले खाने पर एक दुसरे के ऊपर गिर पड़ने से यात्री परस्पर गढवाली  भाषा में  हास्य का मजा भी  ले रहे थे। अलग अलग समीपस्थ गांवों के यात्रियों की परस्पर इतने दिनों के मिलन  के साथ  अन्य नाते रिश्तेदारों व् परिचितों  का जिक्र भी मन को आनंदित कर  रहा था। मैं बोलचाल की सरल व् अपनत्व  वाली भाषा को समझ रहा था क्योंकि भलीभांति गढ़वाली बोल भी सकता था।
यात्रियों के बोल, इस असुविधापूर्वक बस यात्रा में, हंसी मजाक के एक मात्र साधन थे जो मन को प्रफ्फुलित कर  देते थे। इस कटु सफर में सभी यात्रियों का गंतव्य स्थान तक पहुंचने की शारीरिक पीड़ा के अनुभव को कम करने के  बातचीत एवं हास्य के बोल  कभी कभी गति पकड़ लेते थे। बीच-बीच  में वृद्ध महिलाओं द्वारा अपनी भाषा के  लधु मज़ाकिय शब्द यात्रा में यदाकदा एक अनजाना सा  हास्य  भी उपन्न कर  देते थे, साथ ही किसी छोटे बच्चे द्वारा वृद्ध महिला के शब्दों को दोहराकर बोलने पर तथा  उस पर युवा यात्रि का और कुछ जवाब  देना भी  यात्रा को सुगम तो नहीं परन्तु और भी आनन्दित कर रहा था। सभी यात्री कठिनाई-युक्त सफर का  मनोरंजन ले रहे थे। यात्रा में गम्भीर बातचीत तो होती थी  लेकिन अधिकतर हास्य ही समय व्यतीत करने का एक मात्र जरिया था।  कभी कभी तो हास्य किसी किसी यात्री के लिए अति मजाक के कारण कटु भी बन जाता था परन्तु  यात्रा में हास्य को नई ऊंचाई तो मिल ही जाती थी। यह यात्रा  मुझे हास्य से अधिक, पहाड़ों में आर्थिक, भौगोलिक  कठिनाइयों की पीड़ा व् सरल भाव के ताने बाने की प्रतीतात्मक जीवन शैली  की तरह महसूस हुयी। लगभग साढ़े ५ बजे पर उस दिन के कंडक्टर व् ड्राइवर द्वारा स्वघोषित अंतिम बस अड्डे बिंध्यवासिनी पहुँचे।
सूरज की रौशनी कम होती जा रही थी विंध्यवासिनी से गांव लगभग २० किलोमीटर दूर होगा। १५ किलमीटर ताल नदी के रास्ते पैदल ही चलना पड़ा। अंतिम बस अड्डे कंडरह मण्डी  तक  पहुंचे। शाम हो गयी,रात्रि आगमन भी होने लगा। यह स्थान भी हमारी ग्राम सभा का ही  हिस्सा है। लोग पूज्य पिताजी के नाम से परिचित थे व् साथ गए बालक के माता पिता को भलीभांति जानते थे। यहां पर भी मै  एक प्रवासी होने के गुण अवगुणों का मंथन  मन ही मन में करने लगा। गांव वासी  जो भी मिला आग्रह करने लगा  कि रात यहीं रहें लेकिन घर के इतने नजदीक पहुंचने के बाद घर गांव की याद और भी बलवती हो गई। हमारे न रूक सकने की  पीड़ा को समझते हुए उन्होंने हमे छिल्ल (उजाले का एक साधन) व् माचिस देना चाहा परन्तु टॉर्च हमारे पास था जो हम रास्ते में रात हो जाने के डर से देहरादून से ही साथ रख चुके थे।
लेकिन १५ किलोमीटर की नदी मार्ग की पैदल यात्रा असह्य थकान का अनुभव करा चुकी थी और आगे का ४-५ किलोमीटर मार्ग कड़ी चढ़ाई का था। शरीर थकान से टूटने लगा था  लेकिन यह भी  ज्ञात था कि यहां पर बीच में गांव के ही एक चाचा जी का निवास व् सन्नी भी है। अधिक परेशानी हुयी तो उनके पास भी रूक सकते हैं।
मेरा अजमेर ( राजस्थान) छात्रों के साथ  माउंटेनियरिंग व् ट्रेकिंग के द्वारा गढ़वाल हिमालय,कुमांऊ व्  अन्यत्र स्थानों में अर्जित चढ़ाई चढ़ने का आत्म-विश्वास मुझे प्रेरणा दे गया और  मैं छोटे बालक की मनस्थिति  को न समझ सका, जिसका मुझे दुःख हुआ। बालक भी मां व् दादी से मिलने की आतुरता से गांव तक पहुंचने की इच्छा को न रोक पाया। चाचा जी ने चाय पिलाई और चढाई को देखते हुए हमे उस स्थान तक  छोड़ दिया जहाँ  से हमारा प्यारा घर दिन में दिखाई देता था l  मै थकान भूल गया बालक की आतुरता और भी बढ़  गयी, कदम तेज होते चले गए। घर पहुंचे इंतजार तो हो ही रहा था। रात्रि के साढ़े आठ बज चुके थे हाथ मुंह धोने के बाद साढ़े नौ बजे तक रात्रि भोजन किया। भोजन करते करते नींद के झरोखे  हमारी शारीरिक थकान की परकाष्ठा का बयान कर ही रहे थे। ताई जी व् भाभी जी  की डांट भी  सहनी पड़ी जो स्वाभाविक थी, जो बच्चे के साथ रात को घर पहुँचने पाने से अधिक, आस पास के जंगलों में बाघ के होने की संभावना से थी।
स्वादिष्ट रात्रि भोजनोपरान्त आँखे कह रही थी सो जाइये बहुत थके हुए हो। गर्मी थी, घर के अंदर तो अधिक ही महसूस हो रही थी।  हमारा मकान गांव के श्रेणीवद्ध मकानों की श्रंखला में अंतिम व्  सबसे ऊंचाई पर था। हवा मंद मंद चल रही थी। पिताजी ने  गांव वाले आवास को बंद करके यह मकान खुले व् कुछ ऊंचाई पर शायद इसी लिए बनवाया था कि  यहां पर शुद्ध व् मंद  मंद हवा चलती है। चारों ओर से खुला खुला भी है, बीच गांव से दूर व्  साथ ही एकांत में गांव से लगता हुआ भी । इस सन  १९५२-५३ में निर्मित  नए मकान में दो लॉन थे। एक घर के ठीक सामने और दूसरा दाहिनी ओर कुछ ऊंचाई पर था। दाहिने ओर ऊंचाई वाले लॉन में दो अलग अलग चारपाइयाँ, एक छोटी एक बड़ी। एक मेरे लिए और एक बच्चे के लिए लगा दी गयीं। बांयी ओर समतल स्थान पर मैं सोया और दाहिनी ओर कुछ ढलान वाले स्थान पर लगी छोटी चारपाई में बालक लेट गया। शरीर थकान से टूट चुका था अत: स्वाभाविक गहरी निद्रा में हम दोनों लीन  हो गए। यह निद्रा भी इतनी गहरी थी कि चारपाई के एक पाए पर जंजीर से बंधे  हुए एक हल्के  गुलाबी रंग के अच्छी नस्ल के पालतू  कुत्ते के भौंकने की आवाज भी हम नींद आने के कुछ समय बाद सुन नहीं पा रहे थे। शायद शारीरिक थकावट से मन भी गहरी नींद के अतिरिक्त किसी अन्य कल्पना से दूर था।
रात्रि लगभग २  से ३ बजे का समय रहा होगा सोते हुए बच्चे की चारपाई में कुछ हलचल हुयी। चारपाई के  ढलान की ओर जाने पर बच्चा एकदम उठ बैठा और चिल्ला पड़ा। चिल्लाने की आवाज पर मैंने नींद में ही  नीचे की ओर जाती हुई चारपाई को पकड़ लिया। मैं  उठा तो भयभीत बच्चा लपक कर मेरी चारपाई को पकड़ बैठा। उस गहरे अँधेरे में ढलान के नीचे की ओर जंगली झाड़ियों में  किसी जानवर के भागने का एहसास हुआ। उसकी गति इतनी तेज थी कि हम उसे देख भी नहीं पाए।
अन्दर सोयी  हुयी बच्चे की माँ  व् दादी किसी अनहोनी होने की शंका से हमारी आवाज सुनकर,उठकर हमारे पास दौड़ कर पहुंचे।  हालत एकदम नहीं समझ पाये किसी भूत प्रेत की संभावना लगी और तसल्ली  देने लगे। अब हम  चार हो लोग गए थे l  दोनों ने देखा की चारपाई पर लोहे की जंजीर से बंधे हुए कुत्ते की जंजीर और कुत्ता भी गायब है। हम और भी भय ग्रस्त हुए और साथ ही गुमशुम भी।  तब उन्होंने बताया की आसपास के जंगलों से बाघ लोगों के जानवरों पर पिछले दिनों आक्रमण कर चुका था। मैं आश्चर्यचकित था कि आक्रमणकारी जानवर आया भी, कुत्ते को जंजीर सहित ले भी गया, मैं और बच्चा दोनों कष्टकारी पैदल यात्रा से निद्रा की गोद में एहसास भी नहीं कर  पाये  कि जंजीर से बंधे कुत्ते को कोई  ले गया है। नीचे  गांव के लोग भी  जाग चुके थे वहीं से आवाज देकर हाल चाल पूछने लगे। लेकिन अप्रत्याशित घटना का पटाक्षेप हो चुका  था। अत : गांव वाले भी हमारे घर तक  उस अँधेरे में पहुंचने की जहमत न उठा पाए। अब मेरा आत्म विश्वास कुछ  डिग गया। इस अप्रत्याशित आक्रमण व् फिर दोहराये जाने की आशंका  के कारण हम  अपनी चारपाईयां अंदर तिबारी में ले गए। दरवाजा बंद किया। नींद पूरी न होने तथा शारीरिक थकान व् भयभीत मन से से कुछ गपशप  करने के बाद पुन: सो गए। सुबह देर ८-९ बजे तक सोये रहेl  गांव के कुछ लोग कुशलक्षेम, वास्तविकता की जानकारी व् चर्चा के लिए घर आये, चाय पर चर्चा में पूरी घटना की जानकारी का आदान प्रदान भी हुआ। यह ज्ञात  हुआ कि  दूर के गांवों  में, कुछ दिनों से  बाघ द्वारा बकरियों का शिकार हो रहा था।
दुनिया के प्रसिद्ध शिकारी  जिम कार्बेट की लिखित पुस्तकों की जानकारी और पिताजी के वन  विभाग में सर्विस में रहने के कारण कुछ जंगल आधारित अनुभवो, अजमेर में छात्रों के साथ अध्यापन के अतिरिक्त अक्सर जंगल कैंप, डेजर्ट कैंप व् अरावली हिल्स में  मून लाइट पिकनिक व् कैंडल लाइट डिनर के अनुभवों का मैं आनंद ले चुका था जो इस तरह का तो नहीं परन्तु रात खुले में बिताये जाने का था। परन्तु गांव में घटित इस अविस्मरणीय मौत के नजदीक पहुंच कर जी पाने की आहट को मैं आज तक नही भूल पाया हूँ। साथ ही आज भी यह नही समझपाने में असमर्थ हूँ कि वह आक्रमणकारी बाघ नरभक्षी था भी, या नहीं।
बाघ के नरभक्षी होने के कारण बड़े स्पष्ट होते हैं। ज़िंदा रहने के लिए जवान बाघ या जंगली शेर जवानी में किसी कारण घायल होने से या ढलती उम्र के कारण नरभक्षी बनता है। पांव में किसी शिकारी के गोली लगने या फिर कांटा चुभ जाने के कारण अथवा आँखों में चोट के कारण या आँखों से कम दिखाई देने के  बाबजूद भी एकदम से नरभक्षी नहीं बनता। दौड़कर जंगली जानवरों का शिकार न कर पाने की स्थिति में वह एक स्थान पर छुपकर शिकार करता है फिर धीरे धीरे और कम तेज भागने वाले जानवरों का शिकार जंगलों में करता है। बढ़ती उम्र में  शेर या बाघ पानी के श्रोत के पास या उस रास्ते में आते जाते जानवरों को झाड़ियों में छिपकर, दबिश देकर मारता है। जब कम तेज भागने वाले जानवर भी बच निकलते हैं तो उसे  निकट गांव में जीवन संघर्ष हेतु पहुंचना पड़ता है।
 
गांवों में चरती हुयी  वह गाय बकरियों को शिकार बनाता है, घटती शारीरिक क्षमता के कारण बूढी गाय बकरियां उसका निशाना बनती हैं। यदि मवेशियों की गति, भूखे शेर की भाग पाने की गति से अधिक हुयी नहीं कि फिर  वह गांव के ही छोटे छोटे बच्चे या बूढ़े लोगों  पर आक्रमण करना शुरू करता है। बच्चे या वृद्धजन अपेक्षाकृत तेज नहीं दौड़ सकते और नरभक्षी का शिकार बन जाते हैं। इस तरह पहिले नर भक्षण  पर लोग इसे नरभक्षी की श्रेणी में रख देते हैं। लेकिन ऐसा भी तो नहीं होता कि वह प्रथम मनुष्य को मारने के पश्चात केवल और केवल नर  को ही मारता है। उसे तो जो कुछ भी मिला उसे ही मारना है, खाना है। क्योंकि  जीवन के अंतिम सांस तक जीना है।
सुन्दरवन डेल्टा में "बंगाल टाइगर" के नरभक्षी बन जाने का कारण उपरोक्त कारणों  के अलावा थोड़ा अलग  भी होता है। वहां पर क्षारीय पानी पीते रहने से बाघ या शेर के कैनाइन (canines) दांत जो कठोर मांस को चीर कर खाने में मदद करते हैं,गिर जाते हैं। तब  वह कोमल मांस वाले बच्चे व् मनुष्यों का शिकार पर ही नजर रखता है। और अपना शिकार एक निर्धारित सोची समझी प्रक्रियानुसार उसी प्रकार करता है जैसा कि अन्य जंगलों में अन्य नरभक्षी  करते हैं।
परम् पिता परमेश्वर का धन्यवाद कि बच्चे को अभय दान मिला और मैं भी  सुरक्षित रह पाया। परन्तु घोर दुःख हुआ कि हमने एक अपना मित्र, प्यारा सा पाला हुआ कुत्ता खो दिया।
आज भी मैं कभी उस क्षण  को याद करता हूँ तो एक वेदना और भय का संचार मन में स्वत्: ही हो जाता है। साथ ही मैं अभी तक यह नहीं समझ पाया की बाघ जो हम तक पहुंचने की हिम्मत कर  चुका था, नरभक्षी था या सामान्य। नरभक्षी  होता तो पहिले बच्चे पर आक्रमण करता। बंधे हुए  कुत्ते को नहीं ले जाता। संभवत: कुत्ते के बच्चे का छोटा होना उसकी भूख मिटाने को पर्याप्त न रहा हो तो वह दूसरे प्रयास में साथ में सोये हुए बच्चे को घसीटकर ले जाने का एक अन्य प्रयास कर बैठा। अन्ततोगत्वा  हम सुरक्षित रहे। पर यह भयावह रात्रि क्षण सदा के लिए एक यादगार क्षण बन गये। आज वह बालक अपने पैरों पर खड़ा है और अपने परिवार का भरण-पोषण भली-भांति देहरादून में रहकर कर रहा है। माँ -बाप की सेवा में समर्पित भी है।
 
 
सुन्दर श्याम कुकरेती
पुत्र स्वर्गीय श्री विश्वेश्वर दत्त कुकरेती
ग्राम- मरोड़ा पल्ला उदयपुर
यमकेश्वर पौड़ी गढ़वाल।
दिनाँक १४ अक्टूबर २०१७।
 

Saturday, 30 September 2017

विजयदशमी की शुभकामनाएं



सभी बन्धुओँ को विजय दशमी की शुभकामनाएं।

-श्री महावीर प्रसाद कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 30.09.2017



विजय दशमी की शुभकामनाएं।

-श्री सुंदर श्याम कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 30.09.2017



अधर्म पर धर्म की विजय
असत्य पर सत्य की विजय
बुराई पर अच्छाई की विजय
पाप पर पुण्य की विजय
अत्याचार पर सदाचार की विजय
क्रोध पर दया, क्षमा की विजय
अज्ञान पर ज्ञान की विजय
रावण पर श्रीराम की विजय के प्रतीक पावन पर्व
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायेँ....

-श्री राजेश कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 30.09.2017



रावण बनना भी कहां आसान...
रावण में अहंकार था
तो पश्चाताप भी था
रावण में वासना थी
तो संयम भी था
रावण में सीता के अपहरण की ताकत थी
तो बिना सहमति परस्त्री को स्पर्श भी न करने का संकल्प भी था
सीता जीवित मिली ये राम की ही ताकत थी
पर पवित्र मिली ये रावण की भी मर्यादा थी
राम, तुम्हारे युग का रावण अच्छा था..
दस के दस चेहरे, सब "बाहर" रखता था...!!
महसूस किया है कभी
उस जलते हुए रावण का दुःख
जो सामने खड़ी भीड़ से
बारबार पूछ रहा था.....
*"तुम में से कोई राम है क्या ❓
विजयदशमी की सम्पूर्ण कुकरेती परिवार को हार्दिक बधाई व मंगलमयी शुभकामनायें।

-श्री सुभाष कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 30.09.2017


मर चुका है रावण का शरीर
स्तब्ध है सारी लंका
सुनसान है किले का परकोटा
कहीं कोई उत्साह नहीं
किसी घर में नहीं जल रहा है दिया
विभीषण के घर को छोड़ कर ।

सागर के किनारे बैठे हैं विजयी राम
विभीषण को लंका का राज्य सौंपते हुए
ताकि सुबह हो सके उनका राज्याभिषेक
बार-बार लक्ष्मण से पूछते हैं
अपने सहयोगियों की कुशल-क्षेम
चरणों के निकट बैठे हैं हनुमान !

मन में क्षुब्ध हैं लक्ष्मण
कि राम क्यों नहीं लेने जाते हैं सीता को
अशोक वाटिका से
पर कुछ कह नहीं पाते हैं ।

धीरे-धीरे सिमट जाते हैं सभी काम
हो जाता है विभीषण का राज्याभिषेक
और राम प्रवेश करते हैं लंका में
ठहरते हैं एक उच्च भवन में ।

भेजते हैं हनुमान को अशोक-वाटिका
यह समाचार देने के लिए
कि मारा गया है रावण
और अब लंकाधिपति हैं विभीषण ।

सीता सुनती हैं इस समाचार को
और रहती हैं ख़ामोश
कुछ नहीं कहती
बस निहारती है रास्ता
रावण का वध करते ही
वनवासी राम बन गए हैं सम्राट ?

लंका पहुँच कर भी भेजते हैं अपना दूत
नहीं जानना चाहते एक वर्ष कहाँ रही सीता
कैसे रही सीता ?
नयनों से बहती है अश्रुधार
जिसे समझ नहीं पाते हनुमान
कह नहीं पाते वाल्मीकि ।

राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती
इन परिचारिकाओं से
जिन्होंने मुझे भयभीत करते हुए भी
स्त्री की पूर्ण गरिमा प्रदान की
वे रावण की अनुचरी तो थीं
पर मेरे लिए माताओं के समान थीं ।

राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती
इन अशोक वृक्षों से
इन माधवी लताओं से
जिन्होंने मेरे आँसुओं को
ओस के कणों की तरह सहेजा अपने शरीर पर
पर राम तो अब राजा हैं
वह कैसे आते सीता को लेने ?

विभीषण करवाते हैं सीता का शृंगार
और पालकी में बिठा कर पहुँचाते है राम के भवन पर
पालकी में बैठे हुए सीता सोचती है
जनक ने भी तो उसे विदा किया था इसी तरह !

वहीं रोक दो पालकी,
गूँजता है राम का स्वर
सीता को पैदल चल कर आने दो मेरे समीप !
ज़मीन पर चलते हुए काँपती है भूमिसुता
क्या देखना चाहते हैं
मर्यादा पुरुषोत्तम, कारावास में रह कर
चलना भी भूल जाती हैं स्त्रियाँ ?

अपमान और उपेक्षा के बोझ से दबी सीता
भूल जाती है पति-मिलन का उत्साह
खड़ी हो जाती है किसी युद्ध-बन्दिनी की तरह !

कुठाराघात करते हैं राम ---- सीते, कौन होगा वह पुरुष
जो वर्ष भर पर-पुरुष के घर में रही स्त्री को
करेगा स्वीकार ?
मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ, तुम चाहे जहाँ जा सकती हो ।

उसने तुम्हें अंक में भर कर उठाया
और मृत्युपर्यंत तुम्हें देख कर जीता रहा
मेरा दायित्व था तुम्हें मुक्त कराना
पर अब नहीं स्वीकार कर सकता तुम्हें पत्नी की तरह !

वाल्मीकि के नायक तो राम थे
वे क्यों लिखते सीता का रुदन
और उसकी मनोदशा ?
उन क्षणों में क्या नहीं सोचा होगा सीता ने
कि क्या यह वही पुरुष है
जिसका किया था मैंने स्वयंवर में वरण
क्या यह वही पुरुष है जिसके प्रेम में
मैं छोड़ आई थी अयोध्या का महल
और भटकी थी वन-वन !

हाँ, रावण ने उठाया था मुझे गोद में
हाँ, रावण ने किया था मुझसे प्रणय निवेदन
वह राजा था चाहता तो बलात ले जाता अपने रनिवास में
पर रावण पुरुष था,
उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया
भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम न कहलाए इतिहास में !

यह सब कहला नहीं सकते थे वाल्मीकि
क्योंकि उन्हें तो रामकथा ही कहनी थी !

आगे की कथा आप जानते हैं
सीता ने अग्नि-परीक्षा दी
कवि को कथा समेटने की जल्दी थी
राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौट आए
नगरवासियों ने दीपावली मनाई
जिसमें शहर के धोबी शामिल नहीं हुए ।

आज इस दशहरे की रात
मैं उदास हूँ उस रावण के लिए
जिसकी मर्यादा
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी ।

मैं उदास हूँ कवि वाल्मीकि के लिए
जो राम के समक्ष सीता के भाव लिख न सके ।

आज इस दशहरे की रात
मैं उदास हूँ स्त्री अस्मिता के लिए
उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए !
मैंने हर वर्ष, महसूस किया है,
उस जलते हुए रावण का दुःख,

जो सामने खड़ी भीड़ से,
नतमस्तक होकर,
बार -बार पूछ रहा था,

"तुम में से कोई राम है क्या?"

-श्री के के (9045165023) द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 30.09.2017
 

Wednesday, 27 September 2017

पौड़ी गढ़वाल का डांडा मंडल क्षेत्र

उत्तराखंड की मिनी विलायत के नाम से जाना जाता है पौड़ी गढ़वाल का डांडा मंडल क्षेत्र! (मनोज इष्टवाल)
ऋषिकेश आईडीपीएल के वीरभद्र क्षेत्र को पार करते ही जब आप गंगा भोगपुर में दाखिल होते हैं तब वहां से घुप्प घने जंगल से होती हुई एक सड़क सर्प की तरह उनफ़ती हुई चढ़ाई चढ़ने व जगंल से दूर भागने की कोशिश में जद्दोजहद करती दिखाई देती है लेकिन वहीँ दूसरी ओर पर्यटकों के कैमरों की क्लिक अपनी गाडी से बाहर निकलकर जंगल की वीरानी को चीरती हुई निकल जाती. जैसे ही आप गंगा भोगपुर से लगभग 12-15 किमी. आगे का सफर तय करते हैं तब आप महसूस करते हैं कि राजा जी नेशनल पार्क क्षेत्र अब आपसे नीचे रह गया है व आपके पैर उन महाकाय वृक्षों के सिरों के ऊपर पहाड़ी पर हैं जहाँ से आप पूरे ऋषिकेश हरिद्वार गंगा व मीलों तक फैले राजा जी नेशनल पार्क को देख सकते हैं. तब आप समझ जायेगे कि आप छोटी विलायत के पादप गाँव तल्ला बनास की सरहद पर खड़े हैं.

तल्ला बनास, कसाण, मल्ला बनास, किमसार, रामजीवाला व धारकोट तक फैले क्षेत्र को यूँ तो स्थानीय भाषा में डांडामंडल क्षेत्र कहा गया है लेकिन ब्रिटिश काल में इसे छोटी विलायत कहा जाता था जो स्वतंत्र भारत के शुरूआती दौर तक इस नाम से जाना जाता था लेकिन चढ़ते सूरज के साथ इस क्षेत्र ने स्वतंत्र भारत में अपने उस विकास को जैसे दीमक लगा दी हो. यहाँ के जन जो भी पढ़ लिखकर बड़ा हुआ उसी ने इस क्षेत्र को तिलांजलि दे दी और मैदानी भू-भाग में अपनी रै-बस कर दी. फिर क्या था उत्तरप्रदेश के जमाने में भी इस क्षेत्र के लोगों को कोई इतना सबल नेतृत्व नहीं मिला जिससे ये साबित कर सकें कि यह सचमुच छोटी है और न उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद ही यहाँ से कोई ऐसा नेता जन्म ले पाया जो यहाँ के मुद्दों को विकास की गति में शामिल करवा सके. नतीजा यह हुआ कि इस छोटी विलायत ने न सिर्फ अपना वजूद खो दिया बल्कि यहाँ से पलायन ने भी रफ्तार पकडनी शुरू कर दी. भले ही यह अलग बात है कि इस क्षेत्र से पलायन का आंकडा आज भी 30 फ़ीसदी से ज्यादा नहीं है लेकिन पलायन वे लोग करते गए जिनके पूर्वजों के परिश्रम की बदौलत यह क्षेत्र छोटी विलायत कहलाता था. यहाँ का जनमानस आज भी अपनी उपजाऊ जमीन पर इतना अन्न उत्पन्न करने में सक्षम है कि उसे साल भर तक बाजार से राशन खरीदने की जरुरत कम ही पड़ती है.

बनास गाँव की उड़द इतनी प्रसिद्ध है कि हर बर्ष यहाँ के लोगों लाखों रूपये की उड़द बेचते हैं जिसके खरीददार घर-घर पहुँच जाते हैं. किमसार की धान अपने आप में लाजवाब मानी जाती है क्योंकि उखड़ खेती में भी यहाँ बारीक प्रजाति का खुशबूदार चावल होता है. यहाँ आलू हल्दी और अदरक का अच्छा उत्पादन होता है. हाई फीड नामक संस्था द्वारा इस क्षेत्र को उन्नत कृषि व सब्जी उत्पादन से जोड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं. वह मदर एनजीओ के रूप में ओएनजीसी व हिल्मेल फाउंडेशन के साथ मिलकर कार्य करेगी. इसी संदर्भ में हाईफीड संस्था के निदेशक मंडल के उदित घिल्डियाल व कमल बहुगुणा ने यहाँ की मिटटी व उर्बरा शक्ति की जांच के लिए क्षेत्रीय भ्रमण किया. उदित घिल्डियाल का  कहना है कि वे इस क्षेत्र में ऐसी वैज्ञानिक तकनीक विकसित करने पर विचार कर रहे हैं जिसमें उच्च क्वालिटी की महंगी सब्जी (देशी विदेशी) का बड़े पैमाने पर उत्पादन कर ग्रामीण आर्थिकी को सुधारा जाने ला लक्ष्य रखा गया है. वे बताते हैं कि तल्ला बनास, मल्ला बनास व किमसार गाँव में जरुरतमंद बीस बीस महिलाओं के ऐसे समूह बनाने की कवायद पर जोर दिया जा रहा है जो कृषि वैज्ञानिकों से नगदी फसल का प्रशिक्षण लें व महंगी सब्जियों का उत्पादन कर अपनी आर्थिकी सुधारें. उन्होंने दावा किया है कि ऐसे में शहर की ओर बढ़ते बेवजह के कदम रुकेंगे व ग्रामीण आर्थिकी भी सुधरेगी. इस टीम द्वारा किमसार व मल्ला बनास में ग्राम प्रधान व अन्य लोगों के साथ बैठकें की गयी. मल्ला बनास की महिला पंचायत सचिव बताती हैं कि खेतों में अगर सूअर न घुसें तो कोई भी यहाँ एक सीजन में 20 हजार से एक लाख रूपये का अदरक बेच सकता है. लेकिन जंगली सूअरों द्वारा फसल चौपट कर देना यहाँ आम सी बात हो रखी है.

छोटी विलायत के रूप में प्रसिद्ध इस क्षेत्र का विकास गोरखा काल (सन 1803 से 1815 तक ) सबसे अधिक बताया जाता है. कहेते हैं इस क्षेत्र में तब कुमाऊं व पश्चिमी नेपाल से आकर कई लोग बसे जिन्होंने यहाँ खेती को बिशेष प्रोत्साहन दिया यही कारण भी रहा कि इस क्षेत्र में नेपाली की राणी का महल रहा जो आज भी नीलकंठ के पास है. इसके प्रमाण यह भी है कि इस क्षेत्र के अधिपत्य देव गुल यानि गोलज्यू कई जातियों में आज भी कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है या फिर घाति देवता के रूप में जाना जाता है. यहाँ का जनमानस आज भी श्रमसाध्य है और यही कारण भी है कि इस क्षेत्र के दो गाँव किमसार व मल्ला बनास ने जनशक्ति से अपने अपने गाँव के हर परिवार के लिए पेयजल आपूर्ति सुचारू कर दी है. बर्षों तक सरकारी विभागों में पानी-पानी की गुहार लगाने वाले प्रदेश के आज भी सैकड़ों गाँव व उनमें रहने वाले ग्रामीणों के हलक प्यासे हैं. हर सरकार पेयजल आपूर्ति के दावे कर करोड़ों की पेयजल योजना कागजों में उतारती है लेकिन नतीजा सिफर ही होता है. ऐसा ही कुछ डांडामंडल क्षेत्र के लोगों के साथ भी बर्षों तक होता आया है. लेकिन अंत में गाँव के ग्रामीणों के प्यासे हलक कैसे तर्र हों इसके लिए सर्व प्रथम डांडामंडल के मल्ला बनास के लोगों ने पंचायत बुलाई और जो निर्णय लिया वह अभूतपूर्व साबित हुआ आज लगभग 100 परिवारों के इस गाँव में ग्रामीण श्रम शक्ति के कारण घर-घर 24 घंटे के पेयजल कनेक्शन है.

तल्ला बनास के समाजसेवी व वर्तमान में इंटर कालेज किमसार के प्रधान बचन सिंह बिष्ट बताते हैं कि सन 2012-2013 में ग्रामीणों ने जनसहयोग से लगभग रूपये 80 हजार अंशदान, रूपये 60 हजार पंचायती सहयोग व रूपये 2 लाख खंड विकास के सहयोग से ग्रामीण श्रमदान शुरू कर दिया व रौला-पाख़ा स्रोत से पानी की पाइप लाइन गाँव तक बिछानी शुरू कर दी. अंत में पेयजल निगम द्वारा एक रिजर्व टैंक बनाकर ग्रामीणों के सपनों को साकार करने अपनी भूमिका निभाई. मात्र कुछ लाख में ही तब से अब तक इस गाँव की पेयजल आपूर्ति बदस्तूर जारी है. मल्ला बनास की देखा-देखी में ग्राम किमसार जोकि बर्षों से प्यासा था के ग्रामीणों ने भी बर्ष 2016-2017 में श्रमदान के लिए हाथों में गैंती-फावड़े कुदाल उठाये व जोगियापाणी स्रोत के मुहावने पर जा पहुंचे. मिटटी, गारे, पत्थर पर लोहे के फल पाइप लाइन का रास्ता बनाते आखिर रिजर्व टैंक तक जा पहुंचे जो लगभग 20000 लीटर एकत्र किया जाता है. यहाँ की ग्राम प्रधान सुनीता देवी बताती हैं कि मात्र 8.50 लाख में आखिर पाइप लाइन घर-घर पहुंचकर 70 घरों के कनेक्शनों को 24 घंटे पेयजल आपूर्ति कर रही है.  वो बताती हैं कि इस पेयजल लाइन को बिछाने में लगभग 3.13 लाख भाजपा की पूर्व विधायक विजय बडथ्वाल, 2.00 लाख मनरेगा और बाकी धनराशि ग्रामीण अंशदान से जुटाई गयी है.

 वर्तमान में मल्ला बनास की ग्राम प्रधान श्रीमती बिमला देवी व किमसार की प्रधान श्रीमती सुनीता देवी का कहना है कि भले ही पलायन गाँवों से बदस्तूर जारी है लेकिन पिछले कुछ बर्षों से हमारे दोनों गाँवों में पलायन के कदम थम गए हैं. अब हमें हाईफीड नामक संस्था महिला समूहों के माध्यम से कृषि कार्य की नई तकनीक का प्रशिक्षण देकर उन्नत किस्म की सब्जियां उगाने के लिए प्रशिक्षण देने वाली है. ऐसे में हमें उम्मीद है कि यह क्षेत्र फिर से छोटी विलायत कहलायेगा. मल्ला बनास के समाजसेवी बचन सिंह बिष्ट बताते हैं कि मल्ला बनास की ऊँची शिखर पर घुघती गढ़ है जो कभी नयाल थोकदारों के अधिपत्य में हुआ करता था उसके कुछ ही नीचे दूसरी शिखर रुइण डांडा (थलधार) कहा जाता है जहाँ बर्षों पूर्व खुदाई में चौथी व पांचवीं सदी के लगभग 4.50 किलो सिक्के पाषाण मिले हैं जिन्हें पुरातत्व विभाग की रेख देख में लखनऊ के पुरातत्व संग्रहालय में रखा गया है. तल्ला बनास की सरहद में एक छोटा सा पांच –छ: दुकानों का बाजार है जिसे कांडाखाल नाम से जाना जाता है यहाँ ग्राम सभा के प्रधान बिनोद नेगी के द्वारा बनाया गया है. यह बड़े हैरत की बात है कि प्रदेश के बड़े बड़े बाजारों में जहाँ आज भी सुलभ शौचालय नहीं हैं वहीँ विकास में पिछड़े कहलाने वाले इस क्षेत्र की इस छोटे से बाजार में ग्राम सभा द्वारा सुलभ शौचालय का निर्माण व बेहतरीन रख-रखाव देखते ही बनता है.

शायद इस क्षेत्र को इन्हीं कुछ कारणों से छोटी विलायत कहा जाता रहा हो क्योंकि यहाँ के कर्मयोगी समाज ने जहाँ एक ओर उपेक्षाओं का दंश झेला है वहीँ अपनी जीवटता से हर बार अपने आप को साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. बहरहाल ग्रामीणों ने सरकारी महकमों को अंगूठा दिखाकर यह तो साबित कर ही दिया कि अगर वे इनके वायदों और योजनाओं के विश्वास पर ही भरोसा कर बैठे होते तो अब तक ये दोनों गाँव अन्य गाँवों की तरह वीरान हो चुके होते. मल्ला बनास को इस कृत्य के लिए आदर्श गाँव का पुरस्कार भी मिल चुका है.
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-श्री उमाशंकर कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'कुकरेती भ्रातृ मण्डल' में प्रेषित, दिनांक 27.09.2017

‘नवरात्र’

नव शब्द का अर्थ है नौ अथवा नया। अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी ‘नवरात्र’ नाम सार्थक है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्त्व देने के लिए नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।

पुरातन समय में दुर्गम नाम के दैत्य ने कठोर तप के बल पर परम पिता ब्रह्मा को खुश कर उनसे वर प्राप्ति के उपरांत चार वेदों व पुराणों को अपने अधीन करके कहीं छिपा दिया। वेदों पुराणों के प्रत्यक्ष न होने से सारे जग में वैदिक कर्मकाण्ड बंद हो गए और पृथवी वासी घोर अकाल से तड़पने लगे। सभी दिशाओं में हाहाकार मच गया। सृष्टि विनाश के कगार पर पहुंच गई।

सृष्टि को बचाने के लिए देवताओं ने उपवास रखकर नौ दिन तक मां दुर्गा की उपासना की और माता से सृष्टि को बचाने की विनती की। अपने भक्तों की पुकार पर मां ने असुर दुर्गम को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों के बीच भंयकर युद्ध का आगाज हुआ। मां ने दुर्गम का संहार कर देवताओं को निर्भय कर दिया। तभी से नव व्रत अर्थात नवरात्र का शुभारंभ हुआ।

-श्री मुकेश कुकरेती द्वारा वाट्सैप समूह 'KBM-सदस्य 2017-18' में प्रेषित, दिनांक 27.09.2017